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________________ हिंदी-भाव सहित (कषायसे हानि)। २१३ - लोभ-कषायकी बुराईःवनचरभयाद्धावन् दैवाल्लताकुलवालधिः, किल जडतया लोलो वालबजे विचल स्थितः। वत स चमरस्तेन पाणैरपि प्रवियोजितः, परिणतषां प्रायेणैवंविधा हि विपत्तयः ।। २२३॥ अर्थः-चमरी नामकी गौ जंगली गौ होती है। उसकी पूंछके बाल बहुत ही सुंदर व कोमल होते हैं । उसे अपनी उस पूंछपर बडा ही प्यार रहता है। यह एक प्रकारका लोभ है। इस प्रेम या लोभके वश होकर वह अपने प्राण गमाती है। शिकारी या सिंहादिक हिंसक प्राणी जब उसे पकडनेकेलिये पीछा करते हैं तब वह भागकर अपना प्राण बचाना चाहती है। वह उन सवोंसे भागनेमें तेज होती है। इसलिये चाहें तो भागकर वह अपनेको वचा सकती है। परंतु भागते भागते जहां कहीं उसकी पूंछके वाल किसी झाडी-आडीमें उलझ गये कि वह मूर्ख वहीं खडी रह जाती है। एक पैर भी फिर आगे नहीं धरती । कहीं पूंछके मेरे बाल टूट न जाय, इस विचारमें प्रेमवश वह अपनी सुध-बुध विसर जाती है । वालोंका प्रेम उसके पीछे आनेवाले यमदंडको उससे विसरा देता है । वस, पीछेसे वह आकर उसे धर लेता है और मार डालता है । इसी प्रकार जिनको किसी भी वस्तुमें आसक्ति बढ जाती है वह उनको परिपाकमें प्राणांत करने तकके दुःख देनेवाली होती है। किसी भी वस्तुकी आसक्तिको भला मत समझो । सभी आसक्तियों के दुःख इसी प्रकारके होते हैं । जिनकी विषयतृष्णा बुझी नहीं है उनको प्राय ऐसे ही दुःख सहने पडते हैं । इस प्रकार ये सभी कषाय दुःख देनेवाले हैं। एकसे एक अधिक दुःखदायक हैं । इसलिये इन कषायोंको जीतना सबसे बड़ा व प्रथम कर्तव्य है। इन कषायोंका जीतना मानो मोक्षको प्राप्त करलेना है। इसीलिये जो दीर्घसंसारी जीव हैं उनके हाथसे कषायोंका विजय
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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