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________________ भास्मानुशासन. ____ अर्थ:-माया, मानो बडा गहरा एक खड्डा है । इसके भीतर सघन मिथ्यादर्शनरूप बहल अंधकार भरा हुआ है। इसी सघन अंघ. कारके कारण इस खड्डेमें निवास करनेवाले क्रोधादिक-सर्प तथा अजगर दीख नहीं पाते हैं । जो जीव इस मायागर्तके भीतर आफसता है उसे ये क्रोधादि-भुजंग ऐसा डसते हैं कि फिर वह जीव अनंतकाल. पर्यंत भी सचेत नहीं होता । इसलिये भाई, इस मायासे डरो । और भी, प्रच्छन्नकर्म मम कोपि न वेत्ति धीमान्, ध्वंसं गुणस्य महतोपि हि मेति मंस्थाः। कामं गिलन् धवलदीधितिधौतदाहो, गूढोप्यबोधि न विधुः सविधुन्तुदः कैः ॥ २२२ ॥ अर्थ:-मैं अमुक एक दुष्कर्म करता हूं। परंतु छिपकर करता हूं इसलिये इसे कोई भी समझ नहीं सकेगा। इस दुष्कर्मके कारण यद्यपि मुझै बडा भारी पातक लगेगा और अमूल्य व पवित्र मेरे बडे भारी आत्मगुणका विघात हो जायगा; परंतु दूसरा कोई समझ नहीं सकता । अरे भाई, तू ऐसा कभी विचार मत कर । देख, चंद्रमें इतना बड़ा गुण है कि अपने शीतल किरणोंसे जगका वह अंधकार दूर करता है तथा सूर्यके किरणोंसे दिनमें संतापित हुए जनोंके संतापको दूर करता है। ऐसे इस चंद्रको राहु चाहें जितना छिपाता है परंतु वह चंद्र छिप नहीं पाता । छिपानेकी हालतमें वह यद्यपि दव जाता है परंतु उस दवे हुए चंद्रको तथा छिपानेवाले राहुको, इन दोनोको ही लोग देखते हैं । ऐसा कोन मनुष्य होगा कि जो ग्रहणके समय उन दोनोंके गुप्त कर्मको देख न लेता हो । वस, इसी प्रकार चाहें जितना छिपाकर कोई पाप करै परंतु जाहिर हुए विना रहता नहीं है। किसी दुष्कर्मको छिपाना, इसीका नाम माया या कपट है। जब यह कपट जाहिर हो जाता है तब मायाचारीके बड़े बड़े फजीते होते हैं। इसीलिये माया रखना बुरा है।
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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