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आत्मानुशासन. परंतु उन्हें भाई भरत चक्रीके तरफका थोडासा मान लगा रहा । उस थोडेसे मानको निकाल न सके । इसीलिये चिरकालपर्यंत उन्होंने तपश्चर्याका घोर दुःख सहा। थोडासा मान भी बड़ी भारी हानि करता है।
व्यर्थ मान करनेपर आश्चर्य:सत्यं वाचि मतौ श्रुतं हृदि दया शौर्य भुजे विक्रमो, लक्ष्मीर्दानमनूनमर्थिनिचये मार्गे गतिर्निवृते । येषां पागजनीह तेपि निरहङ्काराः श्रुतेर्गोचरा,श्चित्रं संप्रति लेशतोपि न गुणास्तेषां तथाप्युद्धताः ॥२१॥
अर्थः-जिनका वचन सदा सत्य निकलता था, जिनका अतुल ज्ञान शास्त्रसे परिपूर्ण था, हृदयमें सदा दया व शूरता वास करती थी, भुजाओंमें जिनके अतुल पराक्रम था, लक्ष्मीका सदा वास था। और जो याचकोंको परिपूर्ण तृप्ति हुए तक दान देते थे। तथा कल्याणके या धर्मके मार्गमें प्रवृत्त रहते थे। इतने गुण जिनमें वास करते थे ऐसे पूर्व कालमें बहुत पुरुष हो गये। परंतु उन्हें अहंकारको लेश भी नहीं था। ऐसा शास्त्र-पुराणोंमें सुनते हैं। किंतु आज जिन मनुष्योंमें उनके शतांश भी गुण नहीं हैं तो भी वे उद्धत होजाते हैं। यह बड़ा आश्चर्य है।।
गर्व किससे करे ? एकसे एक बड़ा है । देखोःवसति भुवि समस्तं सापि संधारितान्य,रुदरमुपनिविष्टा सा च ते चापरस्य । तदपि किल परेषां ज्ञानकोणे निलीनं, वहति कथमिहान्यो गर्वमात्माधिकेषु ॥ २१९ ॥
अर्थः-जिस पृथ्वीपर समस्त जगका वास है वह भी दूसरोंने झेल रक्खी है। अर्थात्, संपूर्ण लोककी भूमिको पवनोंके बेढोंने अधर झेल रक्खा है। किसीकी समझ होगी कि उन पवनोंके बेढोंको तो