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________________ हिंदी-भाव सहित (वैराग्यवृद्धिका क्रम)। १६१ लगते हैं । जिन वस्तुओंके विना प्रथम अवस्थामें भी काम चल सकता है उतनी वस्तुएं तो वे एक-दम छोड देते हैं । जैसे धन दौलत, स्त्रीपुत्र, वसन आभूषण। रहा एक शरीर, एक आहार व रागादि अंतरंग संस्कार । पर वे इनका भी नाश करना धीरे धीरे सुरू करते हैं । प्रथम आहारको त्यागते हैं और पीछे अंतरंग संस्कारोंको। इन दोनोंका नाश होते ही शरीरका नाश कुछ समय वाद आप ही हो जाता है । क्योंकि, शरीरके पैदा करनेवाले व रखनेवाले कर्म-कारणोंका जब नाश हो जाता है तब शरीर-कार्यका टिकाव कैसे रह सह सकता है ? वस, उस समय जीव जगके जंजालोंसे पूरा पूरा छूटकर अखंड शांति-सुखमें मग्न होता है । परंतु जबतक आहार छोडकर अपने बलपर ठहरनेकी शक्ति व अभ्यास प्राप्त नहीं हुआ तबतक आहार ग्रहण करना पडता है। तो भी उसके स्वीकार करनेमें साधु इतना प्रतिबंध या कैद लगा लेते हैं कि जिससे उसमें अत्यंत आसक्ति न बढे किंतु धीरे धीरे उससे छुटकारा मिलता जाय । देखिये: स्वयं करना नहीं, दूसरोंसे कहकर कराना भी नहीं तथा उस आहारके तयार होनेकी इच्छा भी न रखना; अथवा उसमें अपनी संमति भी प्रकाशित न करना । इत्यादि जो जो आहारके लेनेकी विधि कही गई है उस सर्व विधिके अनुसार मिलनेपर साधु आहार लेते हैं। और फिर भी ऐसा आहार लेते हैं कि शरीर रखकर तप खूब करसके। दूसरे लोग दें और भक्तिपूर्वक दें तो लेते हैं, नहीं तो नहीं। वे याचना करके लेना नहीं चाहते व देनेवालेकी इच्छा न रहते हुए दवाव डालकर भी लेना नहीं चाहते हैं । इसपर भी ऐसा नहीं करते कि सदा उसीकी चिंतामें लगे हैं। किंतु कदाचित् व काचित् आहार लेते हैं। वह भी तव कि, जब काम चलता नहीं दीखता । और जब लेते हैं तब भी पेट भरकर नहीं खाते किंतु थोडासा, जिससे कि धर्मकार्य तपश्चरणादि करनेमें बाधा व प्रमाद न हो। इतना होकर भी जबतक २१
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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