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________________ १३० आत्मानुशासन. जो अनुपम सुखका कारण समझ चुके हैं वे अति प्रेमके साथ चाहते हैं। सत्ती स्त्री व्यभिचारी जनोंको अलभ्य होती है। मुक्ति भी उसे अलभ्य समझनी चाहिये कि जो अनेक अन्य संसारकी स्त्रियोंमें प्रेम कर रहा हो । संसारकी स्त्रियां धन रूप वगैरह देखकर प्रेम करती हैं पर मुक्तिका प्रेम सद्गुण देखकर होता है । अर्थात् इसका लाभ धनके या शरीरसंबंधी पराक्रमादिके होनेसे इतर स्त्रियोंकी तरह नहीं होसकता है। ज्ञान चारित्रादि गुणवाला पुरुष ही इसे पसंद पडता है । यदि तुझै इसकी सच्ची चाह है तो तू ज्ञान चारित्रादि आभूषणोंको धारण कर । स्त्रियां आभूषणोंके विना वश नहीं होती हैं। मुक्तिकोलये ज्ञान चारित्रादि सद्गुण ही आभूषण हैं। इन आभूषणोंसे मुक्तिको प्रसन्न कर और उसीमें केवल प्रेम उत्पन्न कर । इस प्रकार तू यदि अन्य स्त्रियोंका सहवास छोडकर इस मुक्तिकी आराधना करेगा तो मुक्ति तेरी अवश्य हो जाययी । भावार्थ इतना ही है कि, जीवोंको मुक्ति प्राप्त करने स्त्रियोंके साथका प्रेम ही एक बडा प्रबल बाधक कारण है। इसलिये उस बाधक कारणको हटाना सबसे प्रथम आवश्यक है। एक मनुष्य संसारसे प्रेम रखता हुआ मुक्तिका भी प्रेमपात्र बनै यह बात संभव नहीं है। वचनसलिलैहस्सस्वच्छस्तरङ्गसुखोदरै,वंदनकमलैबर्बाह्ये रम्याः स्त्रियः सरसीसमाः। इह हि बहवः प्रास्तप्रज्ञास्तटेपि पिपासवो, विषयविषमग्राहग्रस्ताः पुनर्न समुद्गताः ॥ १२९ ॥ अर्थः-स्त्रियां एक सरोवरके तुल्य हैं। सरोवरमें स्वच्छ जल भरा रहता है, वीच वीचमें लहरें उठा करती हैं, कमल फूले रहते हैं । भीतर मगरादि भयंकर जंतु भी छिपे रहते हैं, जो मौका पाकर मनु. प्योंको निगल जाते हैं । परंतु उनके सपाटेमें आते वे ही मनुष्य हैं जो ऊपरी मनोहर दृश्य देखकर उसके देखनेमें लुब्ध हुए वहां जाकर
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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