SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिंदी-भाव सहित (मुक्तिमाप्तिमें बाधक)। १२९ सुश्रूषा करनेमें व विषयभोगकी पूर्तिकेलिये धन कमाने आदि आकुलताओंमें मनुष्यको व्यग्र होना पडता है । मनुष्य इसमें इतना व्यग्र होता है कि अपने सुखकी कुछ परवाहतक नहीं रहती । इसीसे इसमें फसे फसे जन्म वितादेता है, रोगी हो जाता है, मानसिक व्यथाएं बढनेपर मरतक जाता है। संपूर्ण शरीरका मुख्य आश्रयभूत जो वीर्य उसका विषय. भोगमें क्षय होनेसे मरण हो जाना तो साधारण बात है । इस प्रकार स्त्रियां प्रसन्नता व क्रोध इन दोनो अवस्थाओंमें मनुष्यके प्राण हरनेवाली हैं। इनके संबंधसे आकुलता बढनेसे व मोहित होनेसे मनुष्य अपने आत्मकल्याणका मार्ग शोध भी नहीं सकता है। यदि समझले तो भी उस मागेमें चल नहीं सकता है । इसलिये कल्याणसे वंचित रह जाता है। यह भी एक मरण ही समझना चाहिये । एतामुत्तमनायिकामभिजनावा जगत्प्रेयसी, मुक्तिश्रीललनां गुणप्रणयिनीं गन्तुं तवेच्छा यदि । तां त्वं संस्कुरु वर्जयान्यवनितावार्तामपि प्रस्फुटं, तस्यामेव रतिं तनुष्व नितरां प्रायेण सेाः स्त्रियः ॥१२८॥ अर्थः-यदि तुझै मुक्तिकी इच्छा है तो संसारकी स्त्रियोंका संबंध छोडदे। क्योंकि मुक्तिको भी एक स्त्रीके तुल्य ही समझना चाहिये । स्त्रियोंमें परस्पर ईर्ष्या रहती है। कोई भी स्त्री अपने पुरुषके साथ किसी दूसरी स्त्रीका संबंध पसंद नहीं करती । वह पुरुष यदि दूसरी स्त्रीके साथ स्नेह करता दीखै तो वह उसे छोड देती है । मुक्तिका भी यही स्वभाव है । यह दूसरी स्त्रियोंके साथ मोक्षप्रेमी पुरुषको प्रेम नहीं करने देती । यदि वह दूसरी तरफ प्रेम करता है तो यह उसे छोड देती है । ठीक ही है, जो जीव संसारके स्त्रीपुत्रादिमें आसक्त होगा उसे मुक्ति कहांसे प्राप्त होगी? यह मुक्ति एक उत्तम सुंदर सती स्त्रीके तुल्य है। सुंदर सती स्त्रीको दुर्लभ्य समझकर सभी कोई प्रेमपूर्वक देखते हैं। मुक्तिको भी
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy