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________________ ११२ आत्मानुशासन. वे अन्नादिद्वारा शरीरकी रक्षा करते हैं । ऐसा करते करते कुछ प्रीति भी शरीरके साथ हो जाना सहज बात है। परंतु जब आयु निश्शेष होने लगा हो तब केवल अन्न देनेसे भी कुछ शरीर टिक नहीं सकता। फिर वृथा ही उसे मूर्ख मनुष्योंकी तरह वे शरीरको अन्नादिद्वारा रोकनेकी चेष्टा क्यों करें ? क्योंकि, अंतरंग कारण आयुःकर्मके न रहते हुए शरीरको कितना ही अन्न या औषधादि उपचारके द्वारा टिकानेका प्रयत्न किया जाय, पर वह सब उपाय निस्सार है। जब कि साधुजन यह बात समझ रहे हैं और बचना सर्वथा असंव होगया हो तो वे उस शरीरकी वृथा संभालमें क्यों लगेंगे ? उनका उस शरीरसे राग हट जाना सहज बात है । वस, इसलिये वे उस समय शरीरकी रक्षाके प्रयत्न तथा अन्य जन व वस्तुओंसे प्रेम तथा ईर्ष्या-द्वेष हटालेते हैं और शांतिके साथ शरीरसे जुदे हो जाते हैं। वस, इसीका नाम 'सन्न्यास' है। इस सन्न्यासरूप अग्निमें समाधि या योगधारण करके वे शरीरका अंत करदेते हैं। इस प्रकार साधुओंका आयुष्य अंततक साधुओंको संसाराग्निमें जलने देनेसे रोकता है और अंतमें आप उसीमें समाप्त हो जाता है। इस प्रकार जो साधु अपने संपूर्ण आयुष्य तथा शरीरको तपश्च. रण करते करते ही खिपा देते हैं वे धन्य हैं । तपश्चरणमें इतना लीन वही होसकता है कि जो आत्मज्ञानी हो, आत्माको विषयसंबंधमें दुःखी समझता हो, तपश्चरणको संसार-दुःखका निर्मूल नाश करनेवाला मानता हो, तपको ही अपना पूर्ण कल्याणकर्ता समझता हो । जो जीव अज्ञानी है, विषयमोहित होरहा है, विषयोंको सुखका कारण समझता है, बहिरात्मा है, तपसे अपने सुखका नाश हुआ समझता है वह तपश्चरण करनेमें घडीभर भी ठहर नही सकता है। उसमें ठहरना तो दूर ही रहा, तपकी तरफ ढूँक कर वह देखेगा भी नहीं । १ 'सन्न्यास'का यह स्वरूप मानमेसे 'जान बूझकर मरजाने'का दोष आ नहीं सकता है।
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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