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________________ हिंदी -भाव सहित ( तप कैसे हो ? ) । १११ होनेतक वह सुंदर तथा बहुतसा पुण्यकर्मरूप फळ उपजा देता है जिसकी कि परिपक्क दशामें जीवको संसारमें भी असाधारण सुख प्राप्त हो; एवं परंपरया जो अंतमें संसारसे निवृत्त करदे । क्योंकि तपश्चरण के समयमें जो पुण्यफल प्राप्त होता है वह सम्यक्त्व - पूर्वक होनेके कारण सातिशय होता है; और इसीलिये उससे किसीन किसी समय संसार - निवृत्ति भी अवश्य हो जाती है । इस प्रकार तपोवल्लीमें जुडा हुआ शरीर पुण्य फल प्राप्त करके नष्ट होता है इसलिये वह शरीर उस पुष्पके तुल्य है कि जो व्यर्थ सूख न जाकर नवीन फलको पैदा करके सूखता हैं । इसी प्रकार उस साधुका आयुष्य भी सारा तपश्चरण में लगे लगे ही बीत जाता है, पर विषयवासनामें एक क्षणभर भी जीवको फसाता नहीं है । इसीलिये उस साधुका आयुष्य दूधमें मिले हुए पानीके तुल्य है कि जो पानी दूधको आप रहते हुए कभी जलने नहीं देता । चाहें दूधके नीचे कितनी ही आग जलाई जाय, पर जबतक उसमें पानी है तबतक वह धीरे धीरे आप तो जलता जाता है परंतु दूधको आंच नहीं आने देता । इसी प्रकार तपश्चरणमें लगे हुए साधुका आयुष्य, साधुके चौगिर्द विषय - जंजाल प्रदीप्त रहते हुए भी उनमें उस साधुको फसने नहीं देता, किंतु उसे उस संसार - अग्निमें जलाडालने वाले विषयाभिसे बचाकर आप धीरे धीरे नष्ट हो जाता है । 1 साधुओंका आयुष्य जव निश्शेष होने लगता है तब वे शरीरादिकसे सर्वथा उदास हो जाते हैं । यों तो वे पहले से भी शरीर इंद्रिय तथा इनके विषयोंसे विरक्त रहते ही हैं । परंतु आयुः शेष रहते हुए वे भोजनादि द्वारा शरीरको भी संभालते हैं; क्योंकि शेषायु रहते हुए यदि शरीरकी रक्षा भोजनादिसे वे न करें तो अपघात करनेके पापभागी हो जाय । कारण कि शरीरकी स्थिति आयु:कर्म तथा अन्नादि मिलने से रह सकती है । शरीर रखकर तपश्चरण करके पापोंका नाशकर मुक्त होनेकी उन्हें आवश्यकता है । इसलिये आयु रहते हुए
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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