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________________ आत्मानुशासन. आचार्य कहते हैं कि भव्य, तेने रागद्वेषादिके द्वारा संसारके जन्ममरणसंबंधी दुःख तो निरंतर अनुभव किये; अब इससे उलटी प्रवृत्तिसे चलकर भी देख, और एक वार ही देख, कि क्या होता है ? इस रागद्वेपादिसे उलटी प्रवृत्ति धारण करनेपर निश्चयसे तुझै उसका उलटा ही फल मिलेगा । अर्थात् , जब कि राग-द्वेषादिसे जन्म मरणके दुःख प्राप्त हुए हैं तो उससे उलटी प्रवृत्तिका फल यह होगा कि जन्ममरणादि दुःखोंका नाश हो जाय। रागद्वेषसे उलटी प्रवृत्ति अर्थात् समीचीन चारित्र; एवं मिथ्याज्ञानका उलटा श्रेष्ठ ज्ञान होसकता है । इसी उलटी प्रवृत्तिको तथा उसके फलको आगे दिखाते हैं: दयादमत्यागसमाधिसन्ततः, पथि प्रयाहि प्रगुणं प्रयत्नवान् । नयत्यवश्यं वचसामगोचरं, विकल्पदूरं परमं किमप्यसौ ॥१०७॥ अर्थः-अरे भव्य भाई, दया दम त्याग और समाधि, इनकी जहां सदा प्रवृत्ति रहती है उस मार्गमें तू सरलताके साथ चलनेका प्रयत्न कर । यह मार्ग इतना अच्छा है कि इसमें चलनेसे एक दिन उस अपूर्व स्थानमें जीव पहुच सकता है कि जिसकी प्रशंसा वचनोंसे नहीं होसकती और जिसे हम मनसे भी विचार नहीं सकते हैं। वह सुख-स्थान इतना परोक्ष है कि आजतक संसारी जीवको एक वार देखने तकको नहीं मिला । इसीलिये उसका हमें नामतक मालूम नहीं है । पर वह स्थान है अवश्य, और इस पूर्वोक्त प्रकारसे चलने वालेको ही मिल सकता है। . भावार्थ:--अपनेको या दूसरोंको दुःखी समझकर उनपर करुणा धारण करना-ये जीव कब सुखी होंगे, ऐसी भावना करना, इसे दया कहते हैं । इंद्रिय, मन वश करनेको दम कहते हैं । विषय तथा परिमहमेंसे आसक्ति छोडना, एवं धन धरती आदि चौदह बाय परिग्रह,
SR No.022323
Book TitleAatmanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1916
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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