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"हिंदी -भाव सहित ( रागद्वेषमें हानिकाभ ) । ९३
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रागद्वेष के
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द्वेषकी लडी बराबर लगी रहती है और वही लडी शरीरोंको उत्पन्न किया करती है । इसलिये शरीरनाश करनेसे पहले इस लडीका धीरे धीरे हास करना चाहिये । तब संभव है कि शरीरका नाश किसी समय पूरा हो जाय । यही बात ग्रन्थकार आगे दिखाते हैं:कुबोधरागादिविचेष्टितैः फलं, स्वयापि भूयो जननादिलक्षणम् । प्रतीहि भव्य प्रतिलोमवर्तिभि, - वं फलं प्राप्स्यसि तद्विलक्षणम् ॥ १०६ ॥ अर्थ: - अहो भव्य, . तू आजतक जन्म-मरण के अनेक दुःख सहता आया है | यह किसका फल है ? विपरीत ज्ञान तथा द्वारा उत्पन्न हुई अनेक कुचेष्टाओंका यह फल है । ऐसे एक दो वार ही नहीं भोगने पडे हैं । तो ? वार वार उनका भोक्ता है दूसरा कोई नहीं है । जब कि वार वार उन्ही रागद्वेषादिकी चेष्टाओंके होनेसे वे दुःख सदा आजतक मिलते आये हैं तो इस कार्यकारण संबंध का तू विचार कर। जिस क्रियाके होने से जिस फलकी प्राप्ति वार वार देखनेमें आचुकी हो उस क्रियाको उस फलका कारण मान लेना बहुत ही सीधी सी बात है । चाहे एक दो वार धुंएको गला ईंधन तथा अभिसे उपजते हुए देखकर भी कार्यकारणका ज्ञान न होपाता हो पर, वारवार वैसा देखनेसे अवश्य उनके कार्यकारणसंघका निश्चय हो जायगा । इसी प्रकार जब कि अनेक वार प्राणी यह बात देख चुका हो कि रागद्वेष तथा मिथ्याज्ञान द्वारा होनेवाली बाहिरी प्रवृत्तिसे मैं शरीर धारण करता हूं, विषयोंमें फसताहूं और दुःखी होता हूं, तो उसे क्यों न इस बातका विश्वास होगा कि ये ही रागद्वेषादि मेरे दुःखके कारण हैं? जब कि यह निश्चय हो चुका हो कि ये रागद्वेषादि मेरे दुःखके कारण हैं तो यह भी समझलेना सुगम है कि इनसे उलटा चलने पर वह दुःख नष्ट हो जायगा । इसीलिये
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दुःख कुछ
और तू ही