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________________ . ५६ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : दिवारोंवाले राजगृहपुर में मैं रहता हूँ। इस प्रकार पुत्र को आवाहन करने को ( बुलाने को) मंत्र के समान अक्षर लिख कर श्रेणिकने सुनन्दा को दिये। तत्पश्चात् प्रियाको युक्ति प्रयुक्ति से समजा बुझा कर, उसकी स्वीकृति लेकर श्रेणिक राजगृह नगर में आया और 'पिता के चरणकमलों में पड़ कर नमस्कार किया। उसको आया हुआ जानकर राजाने हर्ष के अश्रुजल सहित स्वर्ण कलश के जलसे महोत्सवपूर्वक उसका राज्याभिषेक किया। बाद में राजाने तपस्या अंगीकार की और अनुक्रम से देवलोक को प्राप्त किया। श्रेणिकने राजा होने के बाद परीक्षा कर करके चारसो नवाणु मंत्री बनाये। उसके बाद उन सब से ऊपर प्रधान के रूप में दूसरे के मन की बात को जान सके ऐसा मंत्री बनाने की इच्छा से उसकी परीक्षा करने के लिये राजाने खुद की उर्मिका( Ring ) एक जल रहित कुए में डालकर यह घोषणा कराई कि इस अंगुठी को जो कोई पुरुष कुए के ऊपर खड़ा रहकर अपने हाथ द्वारा ले लेगा वह ही सब मंत्रियों में अग्रसर (मुख्य ) मंत्री होगा । यह सुन कर सब मंत्रिगण तथा अन्य अनेक विचक्षण पुरुष उस कुए के समीप आकर उस मुद्रिका को लेने का प्रयास करने लगे किन्तु सब निराश होकर खाली हाथों वापीस लौटे।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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