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________________ व्याख्यान ३: :३५ : जाने लगे तो वह बोला कि-हे पूज्य ! हमको कहां जाना है ? गौतमस्वामीने जवाब दिया कि-हमको अपने पूज्य गुरु के पास जाना है । यह सुनकर कृषक बोला कि-आप सुर असुर के भी पूज्य हैं फिर जब आपके भी पूज्यगुरु हैं तो फिर वे कैसे होगें ? इस पर गौतमस्वामीने कृषक को भगवान के गुण बतलाये जिनको सुनकर उसको शीघ्र ही समकित की प्राप्ति हो गई। आगे बढ़ने पर तीर्थंकर के अद्भुत अतिशयों की समृद्धि देखकर उसने समकित को विशेषतया दृढ़ किया । अन्त में जब परिवारसहित श्रीवीरस्वामी को उसने साक्षात् देखा तो उसके मन में प्रभु पर द्वेष हुआ। श्रीगौतमगणधरने उस कृषक को कहा किहे मुनि ! श्रीजिनेश्वर को वन्दना करो । तो उसने उत्तर दिया कि-हे महाराज ! जो ये आपके गुरु है तो मुझे इस प्रव्रज्या से कोई प्रयोजन नहीं, आप का शिष्य होना ही बस है। यह आप का वेष संभालिये, मैं तो मेरे घर जाउंगा । ऐसा कह कर उसने साधुवेष का त्याग कर मुठी बांध कर भग गया। उस समय उस कृषक की ऐसी चेष्टा देख कर इन्द्र आदि सब हँसते हँसते बोले कि-अहो ! गौतम गणधर को शिष्य तो बहुत अच्छा मिला । ऐसी अद्भुत स्थिति देख कर गौतम गणधरने लजित हो कर भगवान से उसके वैर का कारण पूछा । भगवानने कहा कि-हे वत्स गौतम ! इस कृषकने तुम्हारे अरिहंत के बताये गुणों का चितवन करने
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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