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________________ :३४ श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : संसारमावन्न परस्स अट्ठा, साहारणं जं च करेइ कम्मं । कम्मरस ते तस्स उवेयकाले, न बंधवा बंधवयं उविति ॥१॥ भावार्थ:-जो मनुष्य संसार में आकर दुसरों के लिये अर्थात् कुटुम्बियों आदि के लिये खेती आदि साधारण कर्म करता है, उस मनुष्य को ही उन कर्मों का विपाक उदय होनेपर उसके फल स्वयं भोगने पड़ते हैं । उस समय उसके बाँधव उन फलों को भोगने के लिये नहीं आते हैं। अतः हे भाई ! तपस्या( चारित्र )रूपी वहाण का आश्रय लेकर इस भवसमुद्र को तैरने का प्रयत्न कर । इस प्रकार कहे हुए गौतमस्वामी के वचनामृत से आतें हुआ वह कृषक बोला कि-हे स्वामी ! में जाति से ब्राह्मण हूं। मेरे सात पुत्र हैं । उन सब के दुष्कर उदर की पूर्ति करने के लिये मैं अनेक पापकर्म करता हूँ। अब आजसे ही आप मेरे बन्धु एवं माता के समान हो । आप जो आज्ञा देगें मैं उसका पालन करुंगा। आपके वचनों की कभी अवहेलना नहीं करूंगा। यह सुनकर गौतमस्वामीने उसको साधुवेष दिया जिसको उसने तत्काल स्वीकृत किया। फिर उस कृषीबल साधु को साथ लेकर जब गौतमस्वामी प्रभु पास
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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