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________________ श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : तुम्हारा राजा हमारे राजा की दास के अनुसार सेवा करे तो मैं उसे मुक्त करूं । यह सुन कर लोगोंने वैसा ही करना स्वीकार किया। फिर कोकाशने वहां जाकर कमलगृह खोला कि- सब बहार निकले । कनकप्रभ राजाने कोकाश का पिता तुल्य सत्कार किया । फिर कोकाश अपने नगर लौट आया । : ५५२ : एक बार काकजंघ राजा और कोकाश गुरु के पास गये । वहां उन्होंने धर्मदेशना सुन कर अपना पूर्व भव पूछा । गुरुने किया कि - हे राजा ! पहले तूं गजपुर का राजा था और यह कोकाश उसी ग्राम में ब्राह्मण जाति का जैनधर्मी सूत्रधार था । इसके कहने से तूने इससे अनेक जैनप्रासाद बनवाये | एक बार उसी ग्राम में दूसरे ग्राम से एक जैन सूत्रधार आया । वह भी अपनी कला में कुशल था । उसकी कला पर इर्षा आने से तेरे पहिले सूत्रधारने तेरे को उसे नीच जाति आदि होना कह कर उसकी निन्दा की। कहा है किकलावान् धनवान् विद्वान्, क्रियावान् धनमानवान् । नृपस्तपस्वी दाता च, स्वतुल्यं सहते न हि ॥ १ ॥ भावार्थ:- कलावान, धनवान, विद्वान, क्रियावान, धन के अभिमानवाला, राजा, तपस्वी और दातार यें अपने बराबरीवाले को सहन नहीं कर सकते - देख नहीं सकते ।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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