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________________ व्याख्यान ५७ : : ५११ : हम को पवित्र करने के लिये यहां पधारे हों ऐसा जान पड़ता है, अन्यथा उनकी इतनी शक्ति नहीं हो सकती, अतः मैं स्वयं ही उनके पास जाकर उनकी विद्वत्ता, देहकांति और चतुराई आदि क्यों न देख आउं ? वहां जाने से मुझे तो दोनों प्रकार से लाभ है । प्रथम तो मेरी ज्ञाति के बड़े बड़े पंडित वहां गये हुए है, इसलिये मुझे पंक्ति भेद न रखा वहां जाना योग्य है और दूसरा कदाच किसी भी प्रकार की युक्ति से घुणाक्षर न्यायद्वारा मेरी विजय होजाय तो मुझे सर्व द्विजों में श्रेष्ठ पद मिलेगां । " इस प्रकार विचार कर वह प्रभास श्रीजिनेश्वर के पास पहुंचा । उसको देख कर प्रभुने कहा कि-“हे आयुष्यमान् प्रभास ! तेरी ऐसी धारणा है कि मोक्ष है भी या नहीं ? तुझे ऐसा संशय परस्पर विरुद्ध वेद वाक्यों के होने से हुआ है । वेद में कहा है कि-"जरामयं वा एतत्सर्वं यदग्निहोत्रं । तथासैष गुहा दुरवगाहा । तथा-द्वे ब्रह्मणी परमपरं च, तत्र परं सत्यज्ञानमनन्तरं ब्रह्मेति”। इन पदों का यह अर्थ करता है कि-अग्निहोत्र यावञ्जीव करना चाहिये । यह अग्निहोत्र की क्रिया प्राणीवध के हेतुभूत होने से यह शबल अर्थात् पापव्यापाररूप है जिससे यह स्वर्ग फल ही देसकती है परन्तु मोक्षफल कदापि नहीं और इस पद में जो इसके यावजीव करने का कहा गया है इससे दूसरा ऐसा कोई समय शेष नहीं रहता कि-जिस में मोक्ष के हेतुभूत दूसरी
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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