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व्याख्यान ५५ :
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उत्तमा ह्यात्मचिन्ताच, मोहचिन्ता च मध्यमा। अधमा कामचिन्ता च, परचिन्ताऽधमाधमा ॥२॥
भावार्थ:-आत्मा की चिन्ता-आत्मा के हिताहित की चिंतवन-विचार करना उत्तम है। मोह की चिन्ता अर्थात् सांसारिक अनेक कार्यों की चिन्ता करना मध्यम है, काम अर्थात् इन्द्रियों के विषयादिक की चिन्ता करना अधम है और दूसरों की चिन्ता करना अधमाधम है । नलिन्यां च यथा नीरं, भिन्नं तिष्ठति सर्वदा । अयमात्मा स्वभावेन, देहे तिष्ठति सर्वदा ॥३॥
भावार्थ:--नलिनी (कमलिनी) से जैसे जल सदैव अलग ही रहता है उसी प्रकार यह आत्मा भी स्वभाव से ही देह से निरन्तर दूर ही रहता है । - इस प्रकार हे गौतम ! सर्व शास्त्रसंमत जीव का जो अभाव बतलाते हैं वे मिथ्यात्ववादी ही हैं, अतः इस विश्व को तू अनेक जीवों से भरा हुआ जान ।
अपितु हे गौतम ! आत्मा के सदृश कोई पदार्थ नहीं है, अतः उपमान प्रमाण से आत्मा सिद्ध नहीं हो सकता है-ऐसी जो तेरी मान्यता है वह भी अयोग्य है क्योंकि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय ये तीनों पदार्थ एक जीव के प्रदेश जितने ही प्रदेश प्रमाणवाले हैं,