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________________ : ४९४: श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : ___इसी प्रकार हे गौतम ! सर्व शास्त्रों (आगमों) के परस्पर विरुद्ध होने से कौनसा प्रमाण और कौनसा अप्रमाण ? ऐसा जो तुझे संदेह होता है वह भी अयुक्त है क्योंकि सर्व आगम आत्मा के अस्तित्व को तो मानते हैं । शब्दप्रमाण(व्याकरण)वाले शाब्दिक कहते हैं कि। यद्वयुत्पत्तिमत्सार्थकं शुद्धपदं तद्वस्तु भवत्येव यथा तपन | व्युत्पत्त्यादिरहितो यत् शब्दः तद्वस्तु नास्त्येव यथा डित्थडवित्थादयः । ___ "जो व्युत्पत्तिवाला, सार्थक एक पद ही है वह पदार्थ होना ही चाहिये जैसे कि-तपतीति तपन-ताप उत्पन्न करे वह तपन कहलाता है । इस व्युत्पत्ति से तपन शब्द से सूर्य जैसा पदार्थ है यह सिद्ध हुआ। तथा जो व्युत्पत्ति आदि रहित शब्द हो वह पदार्थ नहीं हो सकता, जैसे डित्थडवित्थ आदि । इसी प्रकार अततीति आत्मा-भवांतर में जो निरन्तर गति करे वह आत्मा । इस प्रकार आत्मा शब्द की शब्दप्रमाण से भी सिद्धि होती है। कहा भी है किपरमानन्दसंपन्नं, निर्विकारं निरामयम् । ध्यानहीना न पश्यन्ति, निजदेहे व्यवस्थितम् ॥१॥ भावार्थ:--परम आनन्द से युक्त, निर्विकार, और निरामय आत्मा अपने शरीर में रहने पर भी ध्यान रहित पुरुष उसको नहीं देख सकते ।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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