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________________ :४८० : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : हुए देखा और बिना किसी कारण के वैर का चिन्तन कर उस मुनि को शरद्वारा मारडाला । उस पाप कर्म को देख कर उसके धार्मिक प्रधानोंने उसे पिंजरे में बन्द कर दिया और उसके स्थान पर उसके लड़के को गादी पर बिठाया । मुनि काल कर शुभ ध्यान के योग से स्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुआ। कुछ दिनों पश्चात् पद्मराजा को भी पिंजरे से निकाल मुक्त किया गया । वह घूमता फिरता किसी वन में पहुंचा जहां इधर उधर फिरते हुए उसने किसी मुनि को देखा, अतः द्वेषवश उसने उसकी भी ताड़ना की । मुनिने ज्ञान से उसको दुराचारी जान कर तेजोलेश्याद्वारा भस्म कर दिया । जहां से मर कर वह सातवीं नरक में गया और वहां के आयुष्य का क्षय होने पर स्वयंभूरमण समुद्र में मत्स्यरूप से उत्पन्न हुआ। वहां से वापस सातवीं नरक में जाकर फिर मत्स्य हो छढे नरक में गया। इस प्रकार प्रत्येक नरक में दो दो तीन तीन बार भ्रमण कर कुदेव में उत्पन्न हो पृथ्वी अप, तेजस् आदि में, अनन्तकायादिक में और तिर्यच में उत्पन्न हो, महापीडाओं को सहन कर उसने पद्म राजा के जीव में अनन्ती अवसर्पिणी उत्सर्पिणीये व्यतीत की । फिर अकाम निर्जराद्वारा उसके कर्म हलके होने से वह किसी श्रेष्ठी का पुत्र हुआ । उस भव में उसने तापसी दीक्षा ली, जहां से मर कर वह तेरा पुत्र हुआ है । मात्र थोड़े से अव. शेष रहे मुनिघात के पाप से इसको ये रोग उत्पन्न हुए हैं।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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