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________________ व्याख्यान ५४ : :.४७९ : उसका बत्तीस राजकन्याओं के साथ विवाह किया । उन स्त्रियों के साथ विक्रमकुमार दोगुंदक देव के सदृश एकान्त सुख का अनुभव करने लगा। एक बार अशुभ कर्म के वश से कुमार को अकस्मात खांसी, श्वास और ज्वरादिक व्याधियोंने आ घेरा जिसके निवारण के लिये अनेको मंत्र, तंत्र और औषधादिक उपचार किये परन्तु रोग की किसी भी प्रकार शान्ति नहीं हुई। अन्त में व्याधि की असह्य पीडा से उसने रोगशान्ति के लिये धनंजय यक्ष को सो पाड़े बलिदान देने की मानता की परन्तु वह भी निष्फल हुई । एक बार उस नगर के उद्यान में विमल केवली पधारें जिन के आगमन की सूचना वनपाल के मुंह से सुनने पर जब राजा केवली को वन्दना करने को जाने के लिये तैयार हुआ तो कुमारने कहा कि-हे पिता ! मुझे भी वहां ले चलिये कि-जिसे मुनि के दर्शन से मेरे रोग की शान्ति तथा पाप का क्षय हो । यह सुन कर राजा उसको भी अपने साथ ले गये। मुनि को वन्दना कर उनके मुंह से धर्मदेशना सुनने बाद जब राजाने मुनि से उसके कुमार को महान्याधि होने का कारण पूछा तो केवलीने उत्तर दिया कि पूर्व भव में यह कुमार पद्मनामक राजा था। यह अन्याय का मन्दिर था । एक बार जब यह शिकार करने को वन में गया तो इसने वहां किसी साधु को प्रतिमा धारण कर खड़े
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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