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________________ :४४ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : रहती थी। एक बार वर्षाऋतु में अत्यन्त वृष्टि होने पर एक वानर इधर उधर घूमता हुआ शीतल वायु से कांपता हुआ और दांतों को कटकटाता वहां जा पहुंचा । उसको अत्यन्त दुःखी देख कर उस सुगृहीने कहा कि-' हे वानर ! ऐसी वर्षाऋतु में इधर उधर क्यों दौड़ता फिरता है ? हमारी तरह घर बना कर क्यों नहीं रहता ?' यह सुन कर वानरने उत्तर दिया कि सूचीमुखे! दुराचारे!, रे रे पंडितमानिनि! । असमर्थो गृहारंभे, समर्थो गृहभंजने ॥१॥ भावार्थ:-सुई मुख के सदृश तीक्ष्ण मुखवाली, दुरा. चारिणी, और पंडितमानी सुगृही ! मैं घर बनाने में तो असमर्थ हूँ परन्तु गृहभंजन में तो समर्थ हूँ। ऐसा कह कर एक फलांग मार कर उस वानरने उसके घरको तहसनहस कर एक एक तृण को भिन्न भिन्न दिशाओं में फेंक दिया। फिर वह सुगृही अन्यत्र जा सुख से रहने लगी। ऐसा विचार वह वृद्ध हँस मौन धारण कर बैठ रहा । समय के व्यतीत होने पर वह लता बढ़ कर वृक्ष के आसपास लिपट चोतरफ फैल गई और अनुक्रम से वृक्ष के सिरे तक पहुंच गई । एक दिन किसी पारधीने आकर उस लता को पकड़ वृक्ष पर चढ़ सब ओर पाश फैला दिया। रात्री के होने पर सब हंस सोने के लिये उस वृक्ष पर आकर बैठे,
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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