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________________ व्याख्यान ४८ : : ४२७ : और कोई उत्सर्ग तथा अपवाद दोनों के लिये उपयोगी होता है। इस प्रकार सूत्र के भी तीन भेद समझना चाहिये। अतः गुण का विभाग देख कर दोनों पक्ष का उपयोग करना चाहिये । कहा है कितम्हा सवाणुना, सबनिसेहो य पवयणे नत्थि । आयं वयं तुलिज्जा, लाहाकंखिव वाणियओ ॥१॥ भावार्थ:-जिनप्रवचन के विषय में किसी भी कार्य की न तो सर्वथा आज्ञा ही की गई, न निषेध ही परन्तु लाभ की आकांक्षा (इच्छा) रखनेवाले वणिक के सदृश आय और व्यय (लाभ और हानि) की तुलना कर जिस में विशेष लाभ होने की संभावना हो उसी कार्य को करना चाहिये । अर्थात् ऐसा करना चाहिये कि-जिस में व्यय से लाभ अधिक प्राप्त हो सके। उत्सर्ग मार्ग में सर्वथा यथाख्यात चारित्रवान् को जो निरतिचार ( अतिचार रहित) मार्ग है वह ही बतलाया गया है परन्तु वर्तमान समय में उस प्रकार के संघयणादिक के अभाव के कारण उस प्रकार के उत्सर्ग मार्ग का पालन करना अशक्य है अतः अपवाद मार्ग ही सेवन कर बाद में आलोयणादिकद्वारा आत्मा की शुद्धि करना चाहिये । प्रथम राजाभियोग नामक आगार का स्वरूप बतलाया जाता है
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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