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________________ व्याख्यान ४७ : : ४२१: याणि वा अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि अरिहंतदेवयाणि वा वंदित्तए वा नमंसित्तए वा पुट्वि अणालित्तेणं आलवित्तए वा संलवित्तए वा तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पयाडं वा इत्यर्थः-आज से मेरा अन्य तीर्थकों के हरिहरादिक देवों को तथा उनसे ग्रहण किये अरिहंत बिम्बों को वन्दननमस्कार करना, मिथ्यात्वियों के साथ आलाप या संलाप करना और उनको एक बार या बारंबार अशन, पान आदि देना अनुचित है ।" इस प्रसंग पर सद्दालपुत्र श्रावक का दृष्टान्त उपासकदशांग सूत्र से उद्धृत कर यहाँ लिखा जाता है सद्दालपुत्र की कथा पोल्लासपुर नगर में मंखलीपुत्र (गोशाला) का मतानुयायी सद्दालपुत्र नामक श्रावक रहता था। वह पांचसो कुम्हार की दुकानों का स्वामी था। उसके पास तीन करोड़ स्वर्ण मोहर था और दस हजार गायों का पोषक था। उसकी पत्नी का नाम अग्निमित्रा था। एक बार एक देवने आकाश में अदृश रह कर उसको कहा कि-" हे श्रेष्ठी! कल इस नगर में महामाहन अरिहंत सर्वज्ञ का पधारना होगा जिन की तू कल्याणकारक एवं मंगलकारक देवस्वरूप समझ कर सेवा करना ।" ऐसा कह कर वह देव चला गया तब उसने विचार किया कि-सचमुच मेरा धर्मगुरु गोशाल ही महा
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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