SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 449
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : राजाओं में श्रेष्ठ संग्रामसूर राजा दो यतनों के विषय में दृढ़ चित्त हो कष्ट पड़ने पर भी अहिंसादिक नियमों का पालन कर पांचवें देवलोक में सिधारा । : ४२० : इत्युपदेशप्रासादे चतुर्थस्तंभे षट्चत्वारिंशत्तमं व्याख्यानम् ॥ ४६ ॥ व्याख्यान ४७ वां " शेष चार यतना मिथ्यात्वलिप्तचित्तानां संलापालापवर्जनम् । सकृद्वा बहुवारं वा, न यच्छेदशनादिकम् ॥१॥ भावार्थ: - मिथ्यात्व में लिप्त चित्तवाले चरकादिक तपस्वियों को आप कुशल हैं ? इस प्रकार स्नेह से बारंबार पूछना संलाप और एक बार पूछना आलाप कहलाता है । इन दोनों का त्याग करना तीसरी तथा चोथी यतना कह लाती है । इसी प्रकार उन मिथ्यात्वियों को एक बार या बारंबार अशनादिक भेट करना पांचवीं तथा छट्ठी यतना कहलाती है । उपासक दशांग सूत्र में श्रीभगवानने सामायिक ग्रहण करनेवालों को इस प्रकार वर्ताव करना कहा कि - " नो मे कप्पइ अज्जप्पभिर्इ अन्नउत्थिए वा अन्नउत्थियदेव
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy