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________________ : ३५८ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : को देख कर गुरु विचार करने लगे कि-अहो! उस दुष्ट आत्माने जिनशासन को मलिन करनेवाला और युग के अन्त तक अपकीर्ति करनेवाला महादुष्ट कार्य किया है परन्तु अब मैं आत्मघात कर श्रीअरिहंत दर्शन की मनानी का रक्षण करूं । ऐसा विचार कर भवचरिम पच्चख्खाण कर उसी छूरी को अपने कंठ पर रक्खा जिससे तत्काल देह का त्याग कर स्वर्ग सिधारे । प्रातःकाल राज्यसेवकोने ऐसा अमंगल कार्य देख कर पुकार मचाई जिससे सब एकत्रित हो गये और खोज करने पर पत्ता चला कि उस दुष्ट साधु वेषधारी की यह सारी करतूत है, अतः उसकी बहुत कुच्छ खोज की परन्तु उसका कहीं भी पत्ता न चला। वह दुष्ट अभव्य वहां से भग कर उज्जैन पहुंचा और वहां के राजा को अपने उदायी राजा के मार डालने का सर्व वृत्तान्त यथास्थित कह सुनाया जिसको सुन कर राजाने उसका अत्यन्त तिरस्कार कर कहा कि-अरे दुष्ट! तुझे धिक्कार है । अरे अप्रार्थ्य (मृत्यु) का प्रार्थी ! काली चवदस का जन्म हुआ महापापी ! तेरा मुंह काला कर । हे पापीष्ट ! धर्म के बहाने धर्म करते हुए उदायी राजा का तूने घात किया है। ऐसा अधर्म कार्य करनेवाला तू मेरे देश में से ही चला जा । इस प्रकार अत्यन्त निर्भर्त्सना कर उसको अपने देश से बाहर निकलवा दिया । पापी पुरुष को किसी
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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