SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्याख्यान ३८ : भावार्थ:-चरण के हेतुरूप यदि कोई आवश्यकादिक अनुष्ठान करना हो तो गुरु के समक्ष करना चाहिये, गुरु के अभाव में स्थापनाचार्य के पास करना चाहिये । राजा के आमंत्रण से सूरिमहाराज महेल में पधारे और सोलह वर्ष से चारित्र ग्रहण कर विनयपूर्वक गुरु की. एकान्त सेवा करनेवाले उस मायावी विनयरत्न नामक साधु को भी अपने साथ ले गया। राजाने गुरु को अभिवन्दना कर शास्त्रोक्त विधिपूर्वक पौषध ले गुरु के साथ ही प्रतिक्रमण किया और प्रथम पहर के बीतने पर प्रतिलेखना कर संथारा बिछा कर उस पर कुर्कुट के समान चरण को संकोच कर सो रहा । सूरि भी धर्मदेशना देकर दूसरे पहर में सो रहे । उस समय वह दुष्ट मायावी भी थोड़ी सी देर कपट से सो कर " आज पिता के वैरी का वैर लेने का अच्छा अवसर है।" ऐसा विचार कर निद्राग्रसित राजा के कंठ पर कंकलोह की छूरी चलादी । फिर वह पापी अभव्य पौषधशाला में से निकल कर दशाजंगल जाने का बहाना बता कर द्वारपाल के नहीं रोकने से राजमहल से निकल कर अनुक्रम से नगर से बहार चल गया। इधर राजा के कंठ से रुधिर का प्रवाह चल कर गुरु के संथारे तक आया तो मानो साक्षात् आपत्ति का प्रवाह हो इस प्रकार उस..रुधिर के स्पर्श से गुरुमहाराज जागृत हुए और उस प्रकार मृत्यु प्राप्त हुए राजा
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy