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________________ व्याख्यान २३ : : २०५: होता ? कि जिस से तू दया के स्थानरूप हमारे पर निर्दय होता है । अतः तेरे ऐसे निंद्य पराक्रम को धिक्कार है। ___ इस प्रकार धनपाल द्वारा किया हुआ वर्णन सुन कर राजाने उससे कहा कि-अरे धनपाल ! यह तू क्या कहता है? इस पर धनपालने फिर कहा कि-हे स्वामी ! वैरिणोऽपि हि मुच्यन्ते, प्राणान्ते तृणभक्षणात् । तृणाहाराः सदैवैते, हन्यन्त पशवः कथम् ॥१॥ भावार्थ:-प्राणनाश के उपस्थित होने पर यदि शत्रु भी तृण का भक्षण करे-मुँह में तृण ले ले तो उसको शत्रु होने पर भी क्षमा कर देते हैं तो फिर इन निरपराधी पशुओं जो निरन्तर तृण का ही आहार करते हैं किस प्रकार मारा जाता है । ____ यह सुन कर राजा के हृदय में दया का संचार हुआ और उसने अपने धनुष तथा बाण को तोड़ कर आगे के लिये शिकार नहीं खेलने की प्रतिज्ञा की । वन से लौट कर नगर की ओर जाते हुए राजा का बनाया हुआ सरोवर मार्ग में आया जिसको देख कर राजा के कहने से एक कविने सरोवर का वर्णन किया कि- . हंसैर्युक्तः प्रशस्तैस्तरलितकमलैः प्राप्तरंगैस्तरंगनीरैरैन्तर्गभीरैश्चटुलबककुलपासलीनैश्च मीनैः ।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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