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________________ व्याख्यान ११ : : १०७: व्याख्यान ११ वां समकित के तीसरे वैयावृत्य नामक लिंग के विषय में नववें व्याख्यान के आरम्भ के श्लोक में “वैयावृत्त्यं जिने साधौ, चेति लिंगं त्रिधा भवेत्।" इन आखिरी दो पदों में 'जिन' अर्थात् रागादि अठारह दोषों को जीतनेवाले देव और तत्व का प्रकाश करनेवाले तथा पांच प्रकार के आचार के पालने में तत्पर ' साधु' अर्थात् 'गुरु' इन में से जिनेश्वर की द्रव्यपूजा तथा भावपूजा द्वारा वैयावृत्य करना चाहिये और गुरु की अशन, पानादि द्वारा वैयावृत्य अर्थात् सेवा अवश्य करनी चाहिये । क्यों कि वह प्रणियों के लिये लाभदायक होती है। इसे समकित का तीसरा लिंग समझना चाहिये । इसके लिये संप्रदायागत नंदिषेण का दृष्टान्त है जो इस प्रकार हैं: नंदिषेण का दृष्टान्त वैयावृत्यं वितन्वानः, साधूनां वरभावतः । बध्नाति तनुमान्नन्दिषेणवत् कर्म सुन्दरम् ॥१॥ भावार्थ:-श्रेष्ठ भाव से साधुओं को वैयावच्च करने वाले प्राणी नंदिषेण मुनि समान शुभ कर्मों का उपार्जन करते हैं।
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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