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________________ क्षमा गुण को उन्होंने इतना आत्मसात् कर लिया है कि भयंकर उपसर्ग और उपद्रव में भी वे अपने स्वभाव से चलित नहीं होते हैं। कोई समुद्र में पत्थर भी फेंकता है, परन्तु इससे समुद्र में खलबलाहट नहीं मचती है, वह तो उस पत्थर को भी अपने में समा लेता है । बस, इसी तरह धीर, गम्भीर महात्मा भी सभी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में अपनी धीरता-गम्भीरता का त्याग नहीं करते हैं। प्रशमरस की निमग्नता के साथ-साथ वे महात्मा तपस्वी भी होते हैं। उनके जीवन में नाना प्रकार की तपस्याएँ चालू ही होती हैं। बाह्य और अभ्यन्तर तप की उत्कृष्ट साधना से वे कर्म रूपी मैल को जलाकर भस्मसात कर देते हैं। इसके फलस्वरूप उनकी प्रात्मा में विविध गुणों का आविर्भाव होने लगता है। वे महात्मा कभी मासक्षमण की उग्र तपस्या करते हैं, तो कभी पन्द्रह उपवास.."तो कभी छट, अट्रम । बाह्य तप की उत्कृष्ट साधना से वे रसना-विजेता और इन्द्रिय-विजेता बन जाते हैं। तप धर्म की साधना के साथ-साथ वे अपना अधिकांश समय शास्त्र के पठन-पाठन और स्वाध्याय में ही व्यतीत करते हैं। वे शास्त्र के रहस्यों के पारगामी होते हैं। कहा भी है-'साधवः शास्त्रचक्षुषा' । वे शास्त्र रूपी चक्षु के बल से जगत् के स्वरूप को देखते हैं और अपने प्रात्मकल्याण के मार्ग का निश्चय करते हैं। शास्त्रज्ञान के बल से मोक्ष-मार्ग को जानकर, अन्य भव्य जीवों को भी वे मोक्षमार्ग की प्रेरणा देते हैं। अपनी शान्त, सुधारस-११ शान्त सुधारस विवेचन-१६१
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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