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________________ कायोत्सर्ग में खड़े रहकर चातुर्मास व्यतीत कर देते थे, कई मुनि सिंह गुफाओं के पास रहकर चातुर्मास व्यतीत करते थे। इस प्रकार अन्तरंग साधना के बल से वे अल्प समय में ही अपना मात्मकल्याण कर लेते थे। उन महात्मानों को धन्य है, जो सदैव धर्मध्यान में तल्लीन रहते हैं। अनादिकाल से आत्मा में संसार के सुख के प्रति राग और दु:ख के प्रति द्वेष के तीव्र संस्कार होने के कारण वह पात और रौद्रध्यान में शीघ्र डूब जाती है। आर्तध्यान अर्थात् स्व-पीड़ा के निवारण और स्व-सुख की प्राप्ति की सतत चिन्ता । जब तक सांसारिक पदार्थों के प्रति राग और आकर्षण होगा, तब तक आत्मा आर्तध्यान के चंगुल से मुक्त नहीं बन सकती। धर्मध्यान हमें 'पर' से हटाकर 'स्व' की ओर ले जाता है। जिनाज्ञा का चिन्तन, जगत् के सर्व जीवों के सुख की कामना आदि धर्मध्यान है। धर्मध्यान में लीन हुए बिना प्रार्त्तध्यान का नाश सम्भव नहीं है। धन्य है उन महात्माओं को, जो प्रार्तध्यान से सर्वथा मुक्त बनकर धर्मध्यान में लीन बने हुए हैं। धर्मध्यान के साथ-साथ वे महात्मा प्रशमरस में निमग्न भी हैं। वे क्रोध की आग से सर्वथा मुक्त बन चुके हैं। प्रतिकूल प्रसंगों में भी उनकी चित्त-प्रसन्नता वैसी ही बनी रहती है । शान्त सुधारस विवेचन-१६०
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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