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________________ विवेचन निर्ग्रन्थ मुनियों को धन्य हो __ग्रन्थकार महर्षि पूर्वोक्त दो गाथाओं में तीर्थंकर परमात्मा के गुणों की अनुमोदना करके अब निर्ग्रन्थ गुरुतत्त्व के सुकृतों की अनुमोदना करते हुए फरमाते हैं कि उन महात्माओं को धन्य हो, जो संसार के समस्त बंधनों से मुक्त बनकर पर्वत, जंगल, गुफा अथवा किसी लतागृह में रहकर आत्मध्यान में लीन बने आत्मध्यान में लीन बनने के लिए बहिर्भाव का त्याग अनिवार्य है। बहिर्भाव के त्याग के लिए बाह्य लोकसम्पर्क का भी त्याग हितकर ही है। लोकसम्पर्क का त्याग कर व्यक्ति ज्यों-ज्यों आत्म-तत्त्व के विचार में तल्लीन बनता है, त्यों-त्यों उसकी अन्तर्दृष्टि खुलने लगती है। प्रात्मध्यान में लीन बनने के लिए गिरि-गुफा आदि एकान्त स्थल सहायक बनते हैं। अपनी आत्मा के परिणाम निमित्ताधीन हैं। शुभ निमित्त के संग से हमारे मन में शुभ विचार/शुभ भाव आते हैं और अशुभ निमित्त के संग से अशुभ भाव। अतः अशुभ भावों से बचने के लिए अशुभ निमित्तों से दूर रहना भी आवश्यक है । प्राचीन समय में श्रमरण-जीवन का अधिकांश भाग गिरि-गुफा व उद्यान में ही व्यतीत होता था, जहाँ उन्हें प्रायः अशुभ निमित्त नहीं मिलते हैं, अत: वे आत्मध्यान में शीघ्र ही तल्लीन बन जाते थे। स्थूलभद्र महामुनि के चरित्र आदि पढ़ते हैं, तब पता चलता है कि उस समय कई मुनि कुए के घेरे की दीवार पर शान्त सुधारस विवेचन-१५६
SR No.022306
Book TitleShant Sudharas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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