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________________ मुख में से सुगन्धित पवन निकले, इसके लिए व्यक्ति इलायची आदि से मिश्रित पान खाता है। इलायची, लोंग, सुपारी आदि बारम्बार चबाता रहता है । पान खाकर वह कहीं थूकता है, परन्तु जिस शरीर में ही गन्दगी भरी हुई है, तो मुंह से सुगन्धित वायु की आशा करना व्यर्थ ही है। मुंह के नीचे तो तुच्छ लार रही हुई है । उस लार में अत्यन्त दुर्गन्ध होती है। वह थूक अथवा लार किसी पर गिर जाय तो तत्काल झगड़ा होने की सम्भावना रहती है। शरीर की यही वास्तविक स्थिति है, तो फिर इससे प्रेम व राग करना मूर्खता ही है। देखो तो सही, शरीर का सौन्दर्य भो कब तक? इस पर लगाए पदार्थों की चमक-दमक कितने समय तक रहती है ? मात्र थोड़े समय के लिए। तो फिर प्रश्न होता है ऐसे शरीर में आसक्ति क्यों ? असुरभिगन्धवहोऽन्तरचारी , आवरितुं शक्यो न विकारी । वपुरुपजिघ्रसि वारं - वारं, हसति बुधस्तव शौचाचारम् ॥भावय रे०."॥७९॥ अर्थ-शरीर में व्याप्त दुर्गन्धित और विकारी पवन को रोका नहीं जा सकता है, ऐसे शरीर को तू बारम्बार सूघता है। विद्वज्जन तेरे इस 'शौचाचार' पर हास्य करते हैं ॥७६ ।। शान्त सुधारस विवेचन-१९६
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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