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________________ चौबीस घंटे साथ रहने वाला रोजींदा मित्र है। स्वजन-परिवार कदाचित् के मित्र हैं और धर्म क्वचित् मिलने वाला मित्र है। इन मित्रों की परीक्षा करेंगे तो पता चलेगा कि हमेशा साथ रहने वाला देह आत्मा को धोखा ही देने वाला है। आत्मा के पाप की सजा भोगने के समय यह देह धोखा दे देता है। कभी-कभी साथ में रहने वाले स्वजन-परिवार आदि भी प्रापत्ति के समय आत्मा को रक्षण देने वाले नहीं हैं। आत्मा को रक्षण देने वाला एकमात्र धर्म ही है। धर्म ही आत्मा को मुक्तिपर्यन्त सहयोग देता है। ग्रन्थकार महर्षि यही फरमाते हैं कि इस देह की कितनी ही मालिश करो, इसकी विभूषा करो, इसे पुष्ट करो परन्तु इससे आत्मा को कुछ भी लाभ होने वाला नहीं है, बल्कि यह देह विश्वास का भी पात्र नहीं है। इसका विश्वास करने जैसा नहीं है, इसके भरोसे रहने वाला भी हमेशा नुकसान ही उठाता है। यदीय संसर्गमवाप्य सद्यो भवेच्छुचीनाम शुचित्वमुच्चैः। अमेध्ययोनेपुषोऽस्य शौच-संकल्पमोहोऽयमहो महीयान्।।७४॥ (उपेन्द्रवज्रा) अर्थ-जिसके संसर्ग को प्राप्त करके पवित्र वस्तु भी शीघ्र ही अत्यन्त अपवित्र हो जाती है तथा जो शरीर अपवित्र वस्तुओं की उत्पत्ति का केन्द्र है, ऐसे शरीर की पवित्रता की कल्पना करना महाप्रज्ञान ही है ॥ ७४ ॥ शान्त सुधारस विवेचन-१८७
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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