SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मित्र ने सोचा- "अहो! इसने तो राजा का अपराध किया है, राज्य के अपराधी को आश्रय देना तो पाप है, इससे तो मैं भी फंस जाऊँगा" इत्यादि सोचकर बोला--"अहो! तूने राजा का अपराध किया है, अतः तू तो डूबेगा ही और मुझे भी डुबोना चाहता है अतः तू यहाँ से जल्दी चला जा....।" मित्र की यह बात सुनकर श्रेष्ठिपुत्र भौचक्का रह गया। फिर वह भागा अपने उस मित्र के घर, जिससे वह माह में १-२ बार ही मिलता था और साथ खाता-पीता था। उस मित्र के पास जाकर उसने सब बात कही। मित्र ने नाश्ता आदि कराया और फिर उसे कहा-" यहाँ रहने में आपत्ति है, अत: यहाँ से दूर भाग जाओ।" यह बात सुनकर श्रेष्ठिपुत्र निराश हो गया, वह गया अपने तीसरे मित्र के घर । श्रेष्ठिपुत्र के पाते ही उस तीसरे मित्र ने स्वागत किया, सत्कार किया और उसके बाद आगमन की बात पूछी। श्रेष्ठिपुत्र ने राज-अपराध की बात कही। तब उस मित्र ने कहा-"चिन्ता मत करो, आपको यहीं छिपकर रहना है। मेरे होते हुए आपका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता है। आप बेफिक्र रहिए।" ____ इस मित्र का इस प्रकार का आश्वासन सुनते ही श्रेष्ठिपुत्र के आनन्द का पार न रहा, उसने निर्णय किया- "वास्तव में, यही सच्चा मित्र है।" इस कथानक के अनुसार प्रात्मा श्रेष्ठिपुत्र है। देह शान्त सुधारस विवेचन-१८६
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy