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________________ जो मनःशुद्धि को गौण कर तन-शुद्धि पर ही बल देते हैं, उनके लिए किसी कवि ने ठीक ही कहा है मन मैला तन ऊजला, बगुला जैसा रंग। इससे तो कौमा भला, तन मन एक ही रंग ॥ शरीर तो अशुचि का घर है, उसकी शुद्धि कभी सम्भव नहीं है। पूज्य उपाध्यायजी महाराज एक रूपक के द्वारा हमें यह बात समझाते हैं। . एक अधपका मिट्टी का घड़ा है और उसमें शराब भरी हुई है। धीरे-धीरे वह शराब उस घड़े में से गलने लगती है। चारों ओर उस शराब की दुर्गन्ध फैलती है। उस शराब की दुर्गन्ध को रोकने के लिए कोई व्यक्ति पवित्र नदी गंगा की मिट्टी से उसका लेप कर दे अथवा पवित्र गंगाजल से उसे बारम्बार धो दे, तो भी वह घड़ा दुर्गन्ध को रोक नहीं सकता है । बस, यही हालत इस शरीर की है। इसको कितनी ही बार नहलाया जाय, परन्तु यह अपनी दुर्गन्ध का त्याग नहीं करता है। अस्थि, मज्जा, मांस तथा रक्त आदि दुर्गन्धित पदार्थों से यह शरीर भरा हुआ है, अतः जल-स्नान से इसे पवित्र करने की बात हास्यास्पद ही है। स्नायं स्नायं पुनरपि पुनः स्नान्ति शुद्धाभिरभि रिं वारं बत मल - तनु चन्दनैरर्चयन्ते । मूढात्मानो वयमपमलाः प्रीतिमित्याश्रयन्ते , नो शुद्धयन्ते कथमवकरः शक्यते शोद्धमेवम् ॥७२॥ (मन्दाक्रान्ता) शान्त सुधारस विवेचन-१८१
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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