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________________ परन्तु वह तो मृगमरीचिका ही है। वह एकमात्र भ्रम ही है । वहाँ जाने से जल की एक बूद भी मिलने वाली नहीं है। बेचारा मृग ! उस मृगतृष्णा में जल की कल्पना कर भागता है, दौड़ता है; परन्तु अन्त में उसे निराश ही होना पड़ता है । यदि तू निराशा नहीं चाहता है तो संयोग-सम्बन्ध की ममता का त्याग कर निर्ममत्व भाव को धारण कर । भज जिनपतिमसहाय - सहायं , शिवगति - सुगमोपायम् । पिब गदशमनं परिहृतवमनं , शान्तसुधारसमनपायम् ॥विनय० ७० ॥ अर्थ-असहाय की सहायता करने वाले जिनेश्वरदेव को तुम भजो, यही मुक्ति-प्राप्ति का सरल उपाय है। शान्तसुधारस का तू पान कर, जो रोग का शामक है, वमन को दूर करने वाला है और अविनाशी है ।। ७० ।। विवेचन शिवगति का उपाय परमेष्ठि-भगवन्तों की शरणागति का स्वीकार मुक्ति-प्राप्ति का सुगम उपाय है। जिनेश्वर परमात्मा करुणा के महासागर हैं। वे सतत करुणा की वर्षा कर रहे हैं। जो भव्यात्मा जिनेश्वर परमात्मा की शरणागति स्वीकार कर लेती है, वह सनाथ बन जाती है और जिन्होंने जिनेश्वरदेव की शरणागति स्वीकार नहीं की है, वह छह खण्ड की अधिपति चक्रवर्ती होते हुए भी अनाथ ही है। अनाथ में से सनाथ बनने का एकमात्र उपाय है-परमेष्ठिभगवन्तों की शरणागति का स्वीकार । शान्त सुधारस विवेचन-१७५
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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