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________________ संसार में जीवात्मा ने संयोग ( सम्बन्ध ) के कारण ही दुःख की परम्परा प्राप्त की है । पंचसूत्र में कहा है 'संजोगो वियोगकारणम् ।' संयोग वियोग का कारण है । परन्तु जीवात्मा ने इस सत्य को स्वीकार नहीं किया, बल्कि इस संसार में जो-जो संयोग मिले, उन्हें शाश्वत मानकर उसके राग में आसक्त बन गया । धन का संयोग हुआ, उससे राग किया, उसमें आसक्त बन गया । पुत्र-परिवार श्रादि मिले, उसमें आसक्त बना । इसके साथ ही आश्चर्य तो यह है कि जीवात्मा धन के प्रभाव को सहन कर लेगा, किन्तु उसकी प्राप्ति के बाद उसके वियोग को सहन करने में समर्थ नहीं होता है । धन के अभाव में कठिनाई से भी जीवन निर्वाह चला लेगा किन्तु करोड़पति बनने के बाद रोडपति ( भिखारी) बनना उसे स्वीकार नहीं है । इस प्रकार प्रत्येक संयोग को आसक्ति के कारण जीवात्मा ने भयंकर पापकर्मों का ही सर्जन किया है । अतः हे श्रात्मन् ! जिनका अवश्य ही वियोग होने वाला है, उनका पहले से ही त्याग कर दे और अपने आत्मस्वरूप के साथ एकाग्रता धारण कर ले । मृगतृष्णा के जल का कितना ही पान किया जाय, उससे तृप्ति होने वाली नहीं है । ग्रीष्म ऋतु में जब हवा गर्म हो जाती है तब रेगिस्तान में दूर से ऐसा प्रतीत होता है मानों पानी का प्रवाह बह रहा हो । शान्त सुधारस विवेचन- १७४
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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