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________________ अपनी आत्मा को परभाव से मुक्त बनाने के लिए पूज्य उपाध्यायजी म. अब आत्मा का लक्षण बतलाते हैं तथा साधक को किन-किन वस्तुओं में प्रवृत्ति करनी चाहिये और किन-किन से उसे निवृत्त होना चाहिये, यह भी प्रस्तुत गाथा में बतला रहे हैं। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के जनक जो साधन हैं, उनके प्रति प्रशस्त राग रखना चाहिये और उनसे जो अन्य हैं, उन्हें पर समझना चाहिये। इस प्रकार स्व और पर का भेद समझकर आत्मसाधक प्रवृत्ति में लीन बनने और आत्मघातक प्रवृत्ति से दूर रहने के लिए प्रयत्नशील बनना चाहिये। 'अन्यत्व भावना' का उद्देश्य भी यही है कि जो स्व स्वरूप से अन्य (पर) है, उसे जानकर उसका त्याग करना चाहिये । 'नवतत्त्व' में बतलाया गया है किनाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा। वीरियं उवरोगो य एवं जीवस्स लक्खरणं ॥ ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग यही जीवात्मा का लक्षण है, इसके सिवाय अन्य सब वस्तुएँ पर हैं। पर-वस्तु का संग आत्मा के गुणों का घातक है; आत्मा के लिए अहितकर है। अतः उनके संग का त्याग कर स्व स्वरूप (स्व गुरणों) की साधना के लिए प्रयत्नशील बनना चाहिये। शान्त सुधारस विवेचन-१५८
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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