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________________ पर-पुद्गल की आसक्ति से ही जीवात्मा की इस संसार में बुरी हालत हुई है, परन्तु फिर भी आश्चर्य है कि जीवात्मा पुन:पुनः उसी पुद्गल की ओर भागता है। जैसे सजा पाने के बावजूद भी चोर की नजर पर-धन की ओर ही होती है और व्यभिचारी को नजर परस्त्री की ओर ही होती है, इसी प्रकार पर-भाव के संग से प्रात्मा ने अत्यन्त दुःख ही पाया है, फिर भी पर-भाव में रमण की उसकी यह आदत छूट नहीं रही है। इतना दु:ख पाने के बावजूद भी पर-भाव में रमण करते हुए उसे तनिक भी लज्जा नहीं आती है। ज्ञानदर्शनचारित्रकेतनां चेतनां विना । सर्वमन्यद् विनिश्चित्य यतस्व स्वहिताप्तये ॥ ६२ ॥ (अनुष्टुप्) अर्थ-ज्ञान, दर्शन और चारित्र के चिह्न वाली वस्तुओं को छोड़कर अन्य सब वस्तुएँ पर हैं, ऐसा निर्णय कर स्वहित की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करो ।। ६२ ।। विवेचन पर-भाव से मुक्त बनने के लिए स्व और पर की भेदरेखा जानना अत्यन्त आवश्यक है। स्वर्ण-चांदी-तांबे आदि के गुणों को अच्छी तरह जाने बिना व्यक्ति स्वर्ण की सत्य-परीक्षा नहीं कर सकता है। मात्र पीलापन देखकर स्वर्ण को खरीदने वाला स्वर्ण के बदले पीतल भी खरीद सकता है। अतः वस्तु की सत्य परीक्षा के लिए उसके दोनों पहलुओं को जानना आवश्यक है । शान्त सुधारस विवेचन-१५७
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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