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________________ ही अपने आपको कमजोर बना रहा है। क्षणिक व तुच्छ पदार्थों के विनाश से तू व्यर्थ ही दुःखी हो रहा है। कुछ समय के लिए जरा सोच, तू उन पराये पदार्थों की क्यों चिन्ता करता है और आश्चर्य है कि अपने खुद के खजाने की ओर तू नजर भी नहीं डाल रहा है ? ओह ! कितने गुणरत्न तेरी आत्मा में भरे हुए हैं ? इतने कीमती रत्नों का स्वामी होने पर भी तू दीन-हीन बन रहा है ? मुझे तेरी मूर्खता पर हँसी आ रही है। छोड़ दे, इस पागलपन को। देख, अपने आत्म-खजाने को। उसकी तू चिन्ता कर, उसे कोई लूट न ले, अतः उसकी देख-रेख कर और बाह्य पदार्थों की चिन्ता छोड़ दे। यस्मै त्वं यतसे बिभेषि च यतो, यत्रानिशं मोदसे , यद्यच्छोचसि यद्यदिच्छसि ह्रदा, यत्प्राप्य पेप्रीयसे । स्निग्धो येषु निजस्वभावममलं निर्लोठ्य लालप्यसे , तत्सर्व परकीयमेव भगवन्नात्मन्न किञ्चित्तव ॥६० ॥ (शार्दूलविक्रीडितम्) अर्थ-जिसके लिए तू निरन्तर प्रयत्न करता है, जिससे तू निरन्तर डरता है, जहाँ निरन्तर खुश होता है, जिन-जिन के लिए शोक करता है, जिन-जिन को हृदय से चाहता है और जिसे प्राप्त कर तू बारम्बार खुश होता है, अपने निर्मल आत्म-स्वभाव की उपेक्षा कर जिन पदार्थों में स्नेह कर जैसा-तैसा बोलता है (याद रख) हे भाग्यवान् आत्मा ! वह सब दूसरों का है, उसमें तेरा कोई नहीं है । ६० ।। शान्त सुधारस विवेचन-१५२
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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