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________________ दर्शनावरणीय कर्म आत्मा को अंध-बधिर आदि अवस्था में डाल देता है | वेदनीय कर्म आकर आत्मा को मरीज की शय्या पर सुला देता है । मोहनीय कर्म श्राकर आत्मा के क्षमा, नम्रता तथा सन्तोष श्रादि रत्नों को तहस-नहस कर देता है । आयुष्य कर्म आकर अमर आत्मा को मृत्यु- शय्या पर सुला देता है । नामकर्म आकर आत्मा को नरक - तिर्यंच आदि के आकार प्रदान करता है । गोत्र कर्म श्रात्मा को ऊँच-नीच स्थान देता है और अन्तराय कर्म आत्मा की शक्ति को ही दबा देता है । इन कर्मपरमाणुत्रों ने श्रात्म- गृह में घुसकर कैसी खराबी की है ? सर्वतंत्र स्वतंत्र आत्मा पराधीनता की बेड़ियों से बंधी हुई है । अजर-अमर आत्मा क्षरण-क्षरण मृत्यु की वेदनाएँ भोग रही है । क्या आप अपनी आत्मा की इस दुर्दशा से चिंतित हैं ? तो आज ही इन कर्मशत्रुनों को अपने घर में प्रवेश करने से रोकिए । इन शत्रुत्रों को रोकने के लिए दृढ़ संकल्प करना पड़ेगा और सतत चौकसी रखनी पड़ेगी । खिद्यसे ननु किमन्यकथार्तः सर्वदेव चिन्तयस्यनुपमान्कथमात्मन् नात्मनो गुणमणीन्न कदापि ॥ ५६ ॥ ( स्वागता ) , ममता 1 - परतन्त्रः । अर्थ - ममताधीन बनकर अन्य की उपाधिजन्य कथाओं से तुम व्यर्थ खेद क्यों पाते हो ? और स्वयं के अनुपम गुणरत्नों का कभी विचार भी नहीं करते हो ।। ५६ । शान्त सुधारस विवेचन- १५०
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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