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________________ वेदना की आग में से नमिराजा की अन्तश्चेतना जागृत हो गई और अपनी चिन्तनधारा में वे आगे बढ़ने लगे, 'एक में आनन्द है। जहाँ दो, वहाँ कलह और क्लेश है। एक कंकण में कितनी शान्ति है और दो में कितना कोलाहल ! आध्यात्मिक जगत् में भी यह बात उतनी ही सत्य है, जो आत्मा अकेली बन गई “निस्संग बन गई, वह कितनी शान्त हो जाती है !' __ शैशव काल में प्राणी अकेला होता है, अतः कितना आनन्दमय होता है। यौवन को पाते ही वह दो बनना चाहता है और फिर दो में से चार...। बस, एकता का भंग हो गया और चिन्ताओं ने उसे घेर लिया। जीवन की शान्ति धूल में मिल गई। ओह ! एकता में आनन्द अनेकता में शोक । और इस चिन्तन से नमिराजा के चेहरे पर प्रसन्नता छाने लगी। एकता की भावना ने ही उन्हें शान्ति के महासागर में डुबो दिया। कार्तिक पूर्णिमा के पूर्णचन्द्र की भाँति उनके चेहरे पर प्रसन्नता बढ़ने लगी और उन्होंने यह दृढ़ निश्चय कर लिया"यदि इस वेदना से मैं मुक्त हो जाऊँ तो प्रातःकाल ही संसार का त्याग कर प्रभुपंथ का पथिक बन जाऊंगा।" दृढ़ संकल्प में एक महान् शक्ति होती है और उससे विपत्तियों के सब बादल दूर हो जाते हैं । बस, इस संकल्प के बाद नमिराजा की आँखें निद्रा से घिर गईं और उन्होंने अत्यन्त शान्ति का अनुभव किया। सभी वैद्य तो इसी भ्रम में थे कि आखिर हमारी औषधि का प्रयोग सफल हो गया। शान्त सुधारस विवेचन-१३१
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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