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________________ विवेचन संसार में दुःख की सतत परम्परा है इस संसार के भयंकर कारावास में सुख का क्षण भी कहाँ है ? ___इस प्राणी को नरक और निगोद में तो सतत पीड़ा ही पीड़ा है। निगोद में बारम्बार जन्म और मृत्यु की भयंकर पोड़ा। एक दो घड़ो में तो निगोद जीव के ६५५३६ भव हो जाते हैं। अव्यक्त दशा में प्रात्मा इन सब दुःखों को सहन करती है। नरक में व्यक्त रूप से भयंकर वेदना का अनुभव करती है । जन्म भी कुम्भीपाक में। कुम्भीपाक से बाहर निकलने में भयंकर त्रास। तत्पश्चात् परमाधामियों के द्वारा सतत सजा। परमाधामी, नरकजीवों को सतत काटते हैं, भाले से भोंकते हैं, चीरते हैं और नाना प्रकार को पीड़ाएँ देते हैं। नरक में क्षेत्रकृत वेदना भी कम नहीं है। अत्यन्त दुर्गन्धमय, अत्यन्त उष्ण और प्रतिकूल क्षेत्र में नरक का जीव सतत दुःख भोगता रहता है। नरक के जीवों को परस्परकृत वेदना भी भयंकर होती है। नरक में रहे मिथ्याष्टि जीवों को विभंग ज्ञान होता है, परन्तु उस ज्ञान का उपयोग वे अपने शत्रु को पहचानने में करते हैं और शत्रु को पहचान कर परस्पर सतत लड़ते रहते हैं। तिर्यंच भव में भी आत्मशांति का क्षण कहाँ है ? भूख और प्यास से पशु-पक्षी सदा पोड़ित रहते हैं। भूख के साथ उन्हें पराधीनता भी सहन करनी पड़ती है । शान्त सुधारस विवेचन-६२
SR No.022305
Book TitleShant Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1989
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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