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श्री संवेगरंगशाला
६०१ मार्ग में आगम को छोड़कर दूसरा कोई भी प्रमाण नहीं है, अतः उसमें ही प्रयत्न करना चाहिए। इस कारण से सुख की अभिलाषा वाले को निश्चय सर्व अनुष्ठान को नित्यमेव अप्रमत्त रूप में आगम के अनुसार ही करना चाहिए। पूर्व में इस ग्रन्थ में मरण विभक्ति द्वार में जो सूचन किया है किआराधना फल नामक द्वार में मरण के फल को स्पष्ट कहेंगे, इसलिए अब वह अधिगत द्वार प्राप्त होने से यहाँ पर मैं अनुक्रम से मरण के फल को भी अल्प मात्र कहता हूँ। उसमें वेहाणस और गृद्ध पृष्ठ मरण सहित दस प्रकार का मरण सामान्य और दुर्गतिदायक कहा है। एवं पूर्व में कहे विधान अनुसार क्रम वाला शेष पण्डित, मिश्र, छद्मस्थ, केवली, भक्त परिज्ञा इंगित और पादपोगमन ये सात मरण सामान्य से तो सद्गतिदायक हैं। केवल अन्तिम तीन का सविशेष फल कहा है। और शेष चार का फल तो उसके प्रवेश के समान ही जानना अथवा उस-उस संथारे के अनुसार जानना। उसमें भी भक्त परिज्ञा का फल तो उसमें वर्णन के समय कहा है इसलिए इंगिनी मरण का फल कहता हूँ।
पर्व के कथनानुसार विधि से इंगिनी अनशन को सम्यक् आराधना कर सर्व कलेशों का नाश करने वाले कई आत्मा सिद्ध हए हैं और कई वैमानिक में देव हए हैं। इस इंगिनी मरण का फल भी आगम कथित विधान अनुसार कहा है। अब पादपोपगमन नामक मरण का फल कहते हैं। सम्यक्तया पादपोपगमन में स्थिर रहा सम्यक् धर्मध्यान और शुल्क ध्यान का ध्यान करते कोई आत्मा शरीर छोड़कर वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है और कोई क्रमशः कर्म का क्षय करते सिद्ध का सुख भी प्राप्त करता है । उस सिद्धि की प्राप्ति का क्रम और उसका स्वरूप सामान्य से कहता हूँ।
युद्ध में अग्रसर रहे सुभट समान स्वराज्य को प्राप्त करता है वैसे धर्म ध्यान शुक्ल ध्यान का ध्यान करते, शुभ लेश्या वाला अपूर्व करणादि के क्रम से यथोत्तर चारित्र शुद्धि से क्षपक श्रेणि में चढ़ते आराधक ज्ञानावरणीय आदि सहित मोह सुभट को खतम कर केवल ज्ञाना राज्य को प्राप्त करता है फिर वहाँ कुछ कम पूर्व करोड़ वर्ष तक अथवा अन्तमुहूर्त उस तरह रहते हैं उसमें यदि वेदनीय कर्म बहुत और आयुष्य कर्म कम हो तो उस महात्मा को आयुष्य अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाए तब शेष कर्मों की स्थिति को आयुष्य के समान करने के लिए समुद्घात को करते हैं। जैसे गीला वस्त्र को चौड़ा करने से क्षण में सूख जाता है। उसी तरह शीघ्र नहीं सूखने से वेदनीय आदि कर्म अनुक्रम से बहुत काल में खतम करता है, परन्तु वह समुद्घात करने वाले को अवश्यमेव क्षण में भी क्षीण होता है । अतः समस्त घाती कम के आवरण को क्षण से