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________________ ६०२ श्री संवेगरगशाला बढ़ते वीर्योल्लास वाले उन कर्मों को शीघ्र खत्म करने के लिए उस समय समुद्रघात के आरम्भ में करते हैं, उसमें चार समय में क्रमशः दण्ड आकार, कपाट, मंथान और सारे जग (चौदह राजलोक) में व्याप्त-पूरण करते हैं। फिर क्रमशः उसी तरह चार समय में वापिस सिकोड़ते हैं। इस तरह वेदनीय नाम और गौत्र कर्म को आयुष्य कर्म के समान स्थिति वाला करके फिर शैलेशी करने के लिए योग निरोध करते हैं। उसमें प्रथम बादर कार्य योग से बादर मनोयोग को और बादर वचन योग का निरोध करते हैं फिर काया योग को सूक्ष्म काय योग से स्थिर करते हैं, फिर सूक्ष्म काय योग से सूक्ष्म मन और वचन योग को रोककर केवल सूक्ष्म काय योग में केवली सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति नामक तीसरा शुक्ल ध्यान का ध्यान करते हैं उसके बाद यह तीसरी सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति ध्यान द्वारा सूक्ष्म काय योग को भी रोकते हैं, तब सर्व योगों का निगेध होने से वह शैलेशी और निश्चल आत्म प्रदेश वाला होने से सर्वथा कर्म बन्धन रहित-अबंधक होता है, फिर शेष रहे कर्मों के अंशों को क्षय करने के लिए पाँच अक्षरों के उच्चारण काल में वह चौथा "व्युच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती" शुक्ल ध्यान का ध्यान करते हैं । उस पाँच हस्व अ-इ-उ-ऋ-ल स्वरों के उच्चारण करते जितने समय में अन्तिम ध्यान के बल से द्विचरिम समय में उदीरणा नहीं हुए सर्व प्रकृतियों को खत्म करते हैं। फिर अन्तिम समय में वे तीर्थंकर जैन हों तो बारह को और शेष सामान्य केवली ग्यारह को खपाते हैं, फिर ऋजुमति से अनन्तर समय में ही अन्य क्षेत्र तथा अन्य काल को स्पर्श किए बिना ही जगत के चौदहवें राजलोक के शिखर पर पहुँच जाते हैं। वह इस प्रकार जघन्य मनोयोग वाला संज्ञी पर्याप्ता को यह पर्याप्त होता है, तब प्रथम समय में जितने मनोद्रव्य और उसका जितना व्यापार हो, उससे असंख्य गुणाहीन मनोद्रव्यों को प्रति समय में निरोध करता है, असंख्याता समय में वह सर्व मन का निरोध करता है। इस तरह सर्व जघन्य वचन योग वाले पर्याप्त द्वीन्द्रिय जीव को पर्याप्त होने के पहले समय में जघन्य वचन योग के जो पर्याय अंश होता है उससे असंख्य गुणाहीन अंशों का प्रति समय में निरोध करता है, असंख्याता समय में सम्पूर्ण वचन योग का निरोध करता है और फिर प्रथम समय में उत्पन्न हुए सूक्ष्म निगोद के जीव को जो सर्व जघन्य काय योग होता है, उससे असंख्यात् गुणा काय योग का प्रत्येक समय में निरोध करते हैं। अवगाहन के तीसरे भाग को छोड़ते, असंख्यात् समय में सम्पूर्ण काय योग का निरोध करते हैं, तब सम्पूर्ण योग का निरोध करने वाले वह शैलेशी
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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