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श्री संवेगरंगशाला सिद्धों के सुख का स्वरूप :-रागादि दोषों के अभाव में और जन्म जरा मृत्यु आदि का असम्भव होने से, पीड़ा का अभाव होने से सिद्धों का अवश्यमेव शाश्वत सुख ही होता है। क्योंकि राग, द्वेष, मोह एवं दोषों का पक्ष आदि संसार का चिन्ह है अथवा अति संकलेश जीवन संसार का कारण है। इन रागादि से पराभव प्राप्त करने वाला और इससे जन्म, मरणरूपी जल वाले संसार समुद्र में बार-बार भ्रमण करते संसारी आत्मा को किंचित भी सुख कहाँ से मिल सकता है ? रागादि के अभाव में जीव को सुख होता है उसे केवली भगवन्त ही जानते हैं। क्योंकि सन्निपात रोग से पीड़ित जीव उनकी निरोगता के सुख को निश्चय से नहीं जान सकता है। जैसे बीज जल जाने पर पुनः अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती है। उसी तरह कर्म बीज रागादि जल जाने के बाद संसार अंकुर जन्म की उत्पत्ति नहीं होती है। जन्म के अभाव में जरा नहीं है, मरण नहीं है, भय नहीं है और संसार की अन्य गति में जाने का भी भय नहीं होता है तो उन सर्व के अभाव में मोक्ष परम सुख कैसे नहीं हो सकता है ? सकल इन्द्रियों के विषय सुख भोगने के बाद उत्सुकता की निवृत्ति से अनुभव करते संसार सुखों के समान अव्याबाध से ही मोक्ष सुख की श्रद्धा करना चाहिए। विशेष में ये सारे इन्द्रिय जन्य विषय सुख भोगने के बाद में उसकी उत्सुकता की निर्वृत्ति होती है उसकी इच्छा पूनः होने से वह केवल अल्प कालिक हैं और सिद्धों की पुनः वह अभिलाषा नहीं होने से वह निर्वृत्ति सर्वकाल की, ऐकान्तिक और आत्यन्तिकी है इसलिए उनको परम सुख है । इस प्रकार अनुभव से, युक्ति से, हेतु से, तथा श्री जिनेश्वर परमात्मा के आगम से भी सिद्ध सिद्धों का अनन्त शाश्वत सुख श्रद्धा करने योग्य है। इस आराधना विधि को आगम के अनुसार सम्यक् आराधना कर भूतकाल में सर्व कलेशों का नाश करने वाले अनन्त जीव सिद्ध हुए हैं । इस आराधना विधि को आगम के अनुसार सम्यक् आराधना कर वर्तमान काल में भी विवक्षित काल में निश्चय संख्याता सिद्ध हुए हैं। और इस आराधना विधि को आगम के अनुसार सम्यक् आराधना कर भविष्य काल में निश्चल अनन्त जीव सिद्ध होंगे। इस तरह आगम में तीनों काल में इस आराधना विधि की विराधना कर संसार को बढ़ाने वाले भी अनेक जीव को कहा है। इस प्रकार इस बात को जानकर इस आराधना में प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि इस संसार समुद्र में जीव को निश्चय रूप दूसरा कोई भी दुःख का प्रतिकार करने वाला नहीं है।
भव्यात्माओं को 'एकान्त श्रद्धा' आदि भावों से महान् आगम परतंत्रता को ही निश्चय इस आराधना का मूल भी जानना क्योकि छद्मस्थों को मोक्ष