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________________ श्री संवेगरंगशाला ૨૬૭ जन्म की बात कही, उस नयशील सूरि का उसके प्रति प्रद्वेष वाला सारा वृत्तान्त मूल से ही उन्होंने कहा । इस तरह सुनकर वैराग्य उत्पन्न हुआ और वे बुद्धिमान मुनि बोले-अहो ! प्रद्वेष का दुष्ट परिणाम भयंकर है, क्योंकि ऐसे श्रुतज्ञान रूपी गुण की खान, बुद्धिमान और कर्तव्य के जानकार भी महानुभाव आचार्य श्री द्वेष के कारण भयंकर सर्प बने हैं। फिर पूछा कि-हे भगवन्त ! अब उसे वैर का अपशम किस तरह हो सकता है ? केवली भगवन्त ने कहा कि उसके पास जाकर पूर्वभव के वैर का स्वरूप उसे कहो और बारम्बार क्षमापना करो, ऐसा करने से जाति स्मरण ज्ञान को प्राप्त कर उसे बोध होगा और इससे धर्म भावना प्रगट होगी, वह मत्सर का त्याग करके अनशन स्वीकार करेगा और फिर भी उस काल के उचित सद्धर्म की करणी की आराधना करेगा, इससे स्थविरों ने सर्प के उद्देश से उसी तरह क्षमापनादि सर्व किया और वह सर्प अनशन आदि क्रिया करके मर कर देवलोक में उत्पन्न हुआ। इस तरह वैर की परम्परा को उपशम करने के लिए अनशन के समय में शिष्य समुदाय की सविशेष क्षमापना करने से शुभ फल वाली बनती है, और क्षमापना करने वाले को इस जन्म में निःशल्यता, विनय का प्रगटीकरण, सम्यग दर्शनादि गुणों की प्राप्ति, कर्म की लघुता, एकत्व भावना और रागरूपी बन्धन का त्याग, इन गुणों की प्राप्ति होती है। इस तरह गुणरूपी रत्नों के लिए रोहणाचल पर्वत की भूमि समान और मरण की सामने युद्ध में विजय पताका की प्राप्ति कराने में सफल हेतुभूत श्री संवेगरंगशाला नाम की आराधना के दस अन्तर द्वार वाला गण संक्रमण नामक दूसरा द्वार का क्षमापना नामक दूसरा अन्तर द्वार कहा है। अब तीसरा अनुशास्ति द्वार कहते हैं। ___ तीसरा अनुशास्ति द्वार :-अब शास्त्र विधि अनुसार मुनियों को क्षमापना करने पर भी जिसके बिना सम्यग् समाधि को प्राप्त न करे उस अनुशासित को अल्पमात्र कुछ कहते हैं। क्षमापन करने के बाद एकाग्रता से यथाविधि सर्व धर्म व्यापारों में प्रतिदिन उद्यम वाला, बढ़ते विशुद्ध उत्साह वाला, शास्त्र रहस्यों का जानकार, साधु के योग्य समस्त आचारों को स्वयं अखण्ड आचरण करते और शेष मुनियों को भी उसी तरह बतलाने वाला, अपने पद पर स्थापित नूतन आचार्य को अति संयम में रक्त समग्र गच्छ को देखकर वह पूर्व में कहे अनुसार, अनुपकारी भी दूसरों को अनुग्रह करने में लीन चित्त वाले, महासत्त्वशाली और संवेग से भरे हुए हृदय वाले वह महात्मा पूर्व सूरि उसकी अनुमोदना करे और अति प्रसन्न मन वाला वह सूरि उचित समय पर
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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