________________
२६६
श्री संवेगरंगशाला
इससे शास्त्रार्थ में विचक्षण लोग उपयुक्त मन वाले होकर तहत्ति' बोलते थे, उसके पास श्री जैनागम को सुनते थे और 'यह मुनि पवित्र चारित्र वाला है' ऐसा अतिमान देते थे। इस तरह काल व्यतीत होते एक समय उस आचार्य ने विचार किया कि-ये भोले लोग मुझे छोड़कर इसकी सेवा क्यों करते हैं ? अथवा स्वच्छन्दाचारी ये लोग चाहे कुछ भी करें, किन्तु मैंने इस तरह बहुत श्रुत बनाया है, इस तरह दीक्षित बनाया है, इस तरह पालन भी किया है तथा महान् गुणवान बनाया है, फिर भी यह तुच्छ शिष्य मेरी अवगणना करके इस तरह पर्षदा में भेद का वर्तन क्यों करता है ? 'राजा जीता हुआ भी छत्र का भंग नहीं किया जाता है।' इस लोग प्रवाह को भी मैं मानता हूँ कि इस अनार्य ने सुना नहीं है। फिर भी इसको मैं यदि अभी धर्मकथा करते रोदूंगा तो महामुग्ध लोग मुझे ईष्या वाला समझेंगे। इसलिए चाहे वह कुछ भी करे, इस प्रकार के जीवों की उपेक्षा करनी चाहिए, वही योग्य है, अन्य कुछ भी करना वह निष्फल है और उसके भक्त लोक में विरुद्ध हैं। इस तरह संकलेश बनकर उसके प्रति प्रद्वेष करने लगे, और वह आचार्य अन्तकाल में भी उसके साथ क्षमापना किये बिना मरण प्राप्त किया। फिर संकलेश दोष से उसी वन में वह क्रूर आत्मा, संज्ञी मन वाला, तमाल वृक्ष समान अति काला श्याम सर्प हुआ। फिर किसी तरह जहाँ तहाँ घूमता हुआ जिस स्थान पर साधु स्वाध्याय-ध्यान करने की भूमि में आकर रहा। उस समय स्वाध्याय करने की इच्छा से वह शिष्य चला, तब अपशकून होने से स्थविरों ने उसे रोका । एक क्षण रुककर जब वह फिर चला, तब भी पुनः वैसा ही अपशकून हुआ, उस समय स्थविरों ने विचार किया कि इस विषय में कुछ भी कारण होना चाहिये, अतः साथ में हमें भी जाना चाहिये। ऐसा मानकर उसके साथ ही स्थविर मुनि भी स्वाध्याय भूमि पर गये।।
फिर स्थविर के मध्य में बैठे उस शिष्य को देखकर पूर्व जन्म की कठोर ईर्ष्या के कारण उस सर्प को भयंकर क्रोध चढ़ा। तब प्रचण्ड फणा चढ़ाकर लाल आँखों द्वारा आकाश को भी लाल करते और अति चौड़े मुख वाला वह सर्प उस शिष्य की ओर दौड़ा। अन्य मुनियों को छोड़कर उस शिष्य की ओर अति वेग से जाते हुये उस सर्प को स्थविरों ने महामुसीबत से भी उसी समय रोका और उन्होंने विचार किया कि जो ऐसा वैर धारण करता है वह निश्चय ही इस तरह किसी का भी साधुता का भंजक और साधु का प्रत्यनिक होता है। उसके पश्चात् किसी समय पर वहाँ केवली भगवन्त पधारे और स्थविरों ने विनयपूर्वक उनसे यह वृत्तान्त पूछा। इससे केवली भगवान ने पूर्व