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________________ श्री संवेगरंगशाला २६५ और आपने सम्यग् अनुग्रह बुद्धि से हमारा हित करने पर भी हमने मन से कुछ भी विपरीत कल्पना की हो, वचन से बीच में बोला हो या अप्रिय वचन बोला हो, पीछे निन्दा, चुगल खोर तथा आपकी जाति, कुल, बल, ज्ञान आदि से जो नीचता बतलाई हो, काया से आपके हाथ, पैर, उपधि आदि का यदि कोई अनुचित स्पर्श आदि किया हो, उन सर्व को हम विविध-विविध क्षमा याचना करते हैं। तथा हे भगवन्त ! अशन, पान आदि का तथा सूत्र, अर्थ और तदुभय वस्त्र, पात्र दण्ड आदि के तथा सारणा, वारणा, नोदना और प्रति नोदन का आदि की रुचि वाला आपने प्रेमपूर्वक दिया है, फिर भी हमने किसी तरह अविनय से स्वीकार किया हो, वह भी सर्व क्षमा याचना करते हैं, और किसी द्रव्य में, क्षेत्र में काल में या भाव में, कहीं पर भी किसी जात की कदापि जो आशातना की हो, उसे भी निश्चिय त्रिविध-त्रिविध क्षमा याचना करते हैं । अब इस विषय में अधिक क्या कहें ? इस तरह से भक्ति समूह युक्त शरीर वाला, वे शिष्य दो हाथ सम्यग् भाल-तल पर जोड़कर, गुणों से महान्, धर्माचार्य, धर्मोपदेशक और धर्म के वृषभ समान अपने गुरू महाराज को बारबार अपने अपराध किये हये की क्षमा याचना करे, और भी कहे कि-संयम के भार को धारण करने वाले उज्जवल गुणों के एक आधार हे पूज्य गुरुदेव ! दीक्षा दिन से आज तक हितोपदेश देने वाले आप की आज्ञा को अज्ञान तथा प्रमाद दोष के आधीन पड़े हमने जो कोई विराधना की हो, उन सर्व को भी मन, वचन, काया से क्षमा याचना करते हैं। इस तरह गुरू से यथायोग्य खमाणा करने वाले शिष्यादि आनन्द के आँसू बरसाते पृथ्वी तक मस्तक नमा कर यथायोग्य क्षमा याचना करे । इस तरह क्षमापना करने से आत्मा की शुद्धि होती है और दूसरे जन्म में थोड़ा भी वैर का कारण नहीं रहता है। अन्यथा क्षमापन नहीं करने से नयशील सूरि के समान ज्ञान का अभ्यास और परोपदेशादि धर्म का व्यापार भी परभव में निष्फल होता है। वह इस तरह आचार्य नयशील सूरि की कथा एक बड़े समुदाय में विशाल श्रुतज्ञान से जानने योग्य ज्ञेय के जानकार, दूर से अन्य गच्छ में से आकर सुनने की इच्छा वाले, सैंकड़ों शिष्यों के संशयों को नाश करने वाले महाज्ञानी और महान् उपदेशक एवं बुद्धि से स्वयं बृहस्पति के समान नयशील नामक आचार्य थे। केवल सुखशीलता के कारण क्रिया में वे ऐसे उद्यमी नहीं थे। उनका एक शिष्य सम्यग् ज्ञानी और चारित्र से भी युक्त था।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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