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गाथार्थ : आचारका मूल (धर्म का मूल) विनय है, और वह विनय गुरू की भक्तिः | रूप है, और वह (गुणवंत गुरू की) भक्ति विधिपूर्वक वंदन करने से होती है, और वह विधियह (आगे कहने में आयेगा वैसा) है, अर्थात वह विधि दादशावर्त वंदन में कही जायेगी ||३|| .. भावार्थ : विनय धर्म का, ज्ञान का और आचार का मूल है । यदि जीवन में (देव गुरू के प्रति विनय भक्ति और नम्रता) न हो, तो धर्म फल की प्राप्ति नहीं होती है । इसी कारण से ही मुनि भगवंतों के आचार विचार को दर्शाने वाला और आचारांग सूत्र से पूर्व ही योगवहन (तप विशेष) करके अध्ययन करने के योग्य श्री उत्तराध्ययन सूत्र के ३६
अध्ययनों में सर्वप्रथम विनय नाम के अध्ययन का वर्णन किया है । श्री आवश्यक नियुक्ति । | में भी कहा है कि...
विणओ सासणे मूलं, विणीओ संजओ भवे । विणयाउ विप्पमुस्स,कओ धम्मो को तवो ॥१२१९॥
जम्हा विणयह कम्म, अहविहं चाउरंत मुक्खाए । ___तम्हा उ वयंति विऊ, विणउत्ति विलीनसंसारा ||१२१७॥
अर्थ : दादशांग श्रुतज्ञानरूपी श्री जिनेन्द्रशासन का मूल विनय है , उसी कारण से जो विनयवंत होता है वही संयत - साधु होता है । लेकिन जो विनय रहित होता है वैसे साधु का धर्म कहाँ ? और तप भी कहाँ ? ||१२१६॥ (अब “विनय” शब्द का अर्थ कहते है ) जिस कारण से चार गति रूप संसार का(मोक्ष) विनाश करने के लिए (जो आचार क्रिया) आठ प्रकार के कर्मों को विनयति =विशेषत: नाश करते हैं । इसी कारण से विनष्ट संसार वाले विद्वान उसे (सर्वज्ञ परमात्मा वैसे आचार को) “विनय” कहते हैं ।
(तीन प्रकार की गुरुवंदना का स्वरूप) __ अवतरण : तीसरी प्रकार की गुरूवंदना का अर्थ, और तीनों प्रकार की वंदना किसको करनी चाहिये ? इन दो बातों का स्पष्टीकरण इस गाथा में किया गया है । . तइयं तु छंदण दुगे, तत्य मिहो आइमं सयल संघे । बीयं तु बंसणीण य, पयटियाणं च तइयं तु ॥४॥
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