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________________ विशेषार्थ :- नमुत्थुणं में भाव अरिहंतों का अधिकार है, उसके बाद जे अ अईया में द्रव्य अरिहंतो का अधिकार है, जिससे वो वहाँ योग्य स्थान पर ही हैं । मात्र स्थान बदलता है वस्तु नही, इसलिए वह भी श्रुतसम्मत ही है । निर्दोष पुरुषों बारा आचरण में लायी हुई निर्दोष आचरणा के प्रमाण "अ-सढा-55 इण्ण-ऽणवज गीय-5 त्य-अ वारयं" ति मज्झत्या। "आयरणावि हु आणं ति वयणओ सु-बहु मण्णंति ॥ ४॥" (अन्वयः असढा ऽऽ इण्ण णवज्जं गीयत्थ अ-वारयति । “आयरणा विहु आणं" ति वयणओ मज्झत्था सु-बहु मण्णंति || ४९॥ .. __ शब्दार्थ:- अ-सढ = कपट रहित, निर्दोष मनवाले, सरल आइण्ण = अपनाया हुआ, असढाऽऽ इण्ण = निर्दोष, सरल, मनवालों ने अपनाया हुआ, अवध = खराब, दोषित, अनवद्य = निर्दोष, गीअ = गीत तीर्थंकर गंणधरादि महापुरुषो ने गाया हुआ है । अत्य-हकीकत, गीअSत्थ-जिनेश्वरों द्वारा प्ररुपित अर्थ के मर्म को समजनेवाले, (गणधरादि) अ-वारयं, निषेध = न किया हो, ति= इति, मज्झत्या मध्यस्थ (पक्षपात आवेशया आग्रह विना के) आयरणा = अपनाया हुआ वि = भी, हु = खलु, नळी, आणा = आज्ञा, ति = इस प्रकार की, वयणओ = वचनसे, सु= अच्छी तरह, बहु = खूब, मण्णंति = मानते हैं, मान देते हैं। गाथार्य :- निर्दोष पुरुषों ब्दारा आचरित आचरण वह निर्दोष है । ऐसे आचरण का | मध्यस्थ गीतार्थ पुरुष निषेध नहीं करते, लेकिन “ऐसा आचरण भी प्रभुकी आज्ञा ही है।" इस वचन से मध्यस्थ पुरुष, सम्मान देते हैं । विशेषार्थ :- सरल मन वाले आचार्यों के तरफ से छल कपट संभव नहीं। आचरण अर्थात् शास्त्रमर्यादा, शासनशैली को अनुसरते हुए द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव, लोगों की योग्यता, भद्र परणिाम आदि का उचित मूल्यांकन कर अपनाया हुआ या स्वीकार किया गया हो, ऐसे अशठ आचार्यो का आचरण मान्य होना चाहिये । इससे, स्पष्ट होता है कि सरल मनवाले आचार्यों का आचरण भी शास्त्रशैली का अनुसरण करने वाला ही होना चाहिये । वही स्वीकार्य है अन्य नही । 53
SR No.022300
Book TitleBhashyatrayam Chaityavandan Bhashya, Guruvandan Bhashya, Pacchakhan Bhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmityashsuri
PublisherSankat Mochan Parshwa Bhairav Tirth
Publication Year
Total Pages222
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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